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रंगभूमि


तो मेरा इतना आदर कर रहे हैं, जैसे बकरे की गरदन काटने से पहले उसे भर पेट दाना खिला देते हैं। लेकिन मैं इनकी बातों में आनेवाला नहीं हूँ।

राजा साहब-"असामियों के साथ बन्दोबस्त है?"

नायकराम-"नहीं सरकार, ऐसे ही परती पड़ी रहती है, सारे मुहल्ले की गउएँ यहीं चरने आती हैं। उठा दी जाय, तो ६००) से कम नफा न हो, पर यह करता है, जब भगवान् मुझे यों ही खाने-भर को दे देते हैं, तो इसे क्यों उठाऊँ।”

राजा साहब-"अच्छा, तो सूरदास दान लेता ही नहीं देता भी है। ऐसे प्राणियों के दर्शनों ही से पुण्य होता है।"

नायकराम की निगाह में सूरदास का इतना आदर कभी न हुआ था। बोले-"हुजूर, उस जनम का कोई बड़ा भारी महात्मा है।"

राजा साहब-"उस जन्म का नहीं, इस जन्म का महात्मा है।" सच्चा दानी प्रसिद्धि का अभिलाषी नहीं होता। सूरदास को अपने त्याग और दान के महत्व का ज्ञान ही न था। शायद होता, तो स्वभाव में इतनी सरल दीनता न रहती, अपनी प्रशंसा कानों को मधुर लगती। सभ्य दृष्टि में दान का यही सर्वोत्तम पुरस्कार है। सूरदास का दान पृथ्वी या आकाश का दान था, जिसे लुति या कीर्ति की चिन्ता नहीं होती। उसे राजा साहब की उदारता में कपट की गन्ध आ रही थी। वह यह जानने के लिए विकल हो रहा था कि राजा साहब का इन बातों से अभिप्राय क्या है।

नायकराम राजा साहब को खुश करने के लिए सूरदास का गुणानुवाद करने लगे- "धर्मावतार, इतने पर भी इन्हें चैन नहीं है, यहाँ धर्मशाला, मन्दिर और कुआँ बनवाने का विचार कर रहे हैं।"

राजा साहब-"वाह, तब तो बात ही बन गई। क्या सूरदास, तुम इस जमीन में से ९ बीवे मि:टर जॉन सेवक को दे दो। उनसे जो रुपये मिलें, उन्हें धर्म-कार्य में लगा दो। इस तरह तुम्हारी अभिलाषा भी पूरी हो जायगी, और साहब का काम भी निकल जायगा। दूसरों से इतने अच्छे दाम न मिलेंगे। बोलो, कितने रुपये दिला हूँ?"

नायकराम सूरदास को मौन देखकर डरे कि कहीं यह इनकार कर बैठा, तो मेरी बात गई! बोले-"सूरे, हमारे मालिक को जानते हो न, चतारी के महाराज है। इसी दरबार से हमारी परवरिस होती है। मिनिस पलटी के सबसे बड़े हाकिम हैं। आपके हुक्म बिना कोई अपने द्वार पर खूटा भी नहीं गाड़ सकता। चाहे, तो सब इक्केवालों को पकड़वा लें, सारे शहर का पानी बंद कर दें।"

सूरदास-"जब आपका इतना बड़ा अखतियार है, तो साहब को कोई दूसरी जमीन क्यों नहीं दिला देते?"

राजा साहब-"ऐसे अच्छे मौके पर शहर में दूसरी जमीन मिलनी मुश्किल है। लेकिन तुम्हें इसके देने में क्या आपत्ती है? इस तरह न जाने कितने दिनों में तुम्हारी