मनोकामनाएं पूरी होंगी। यह तो बहुत अच्छा अवसर हाथ आया है, रुपये लेकर धर्म-कार्य में लगा दो।”
सूरदास-"महाराज, मैं खुशी से जमीन न बेचूँगा।"
नायकराम-"सूरे, कुछ भंग तो नहीं खा गये हो? कुछ खयाल है, किससे बातें कर रहे हो!"
सूरदास-"पण्डाजी, सब खियाल है, आँखें नहीं हैं, तो क्या अकिल भी नहीं है। पर जब मेरी चीज है ही नहीं, तो मैं उसका बेचनेवाला कौन होता हूँ?"
राजा साहब-"यह जमीन तो तुम्हारी ही है?"
सूरदास-"नहीं सरकार, मेरी नहीं, मेरे बाप-दादों की है। मेरी चोज वही है, जो मैंने अपने बाँह-बल से पैदा की हो। यह जमीन मुझे धरोहर मिली है, मैं इसका मालिक नहीं हूँ।"
राजा साहब-"सूरदास, तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई। अगर और जमीदारों के दिल में ऐसे ही भाव होते, तो आज सैकड़ों घर यों तबाह न होते। केवल भोग विलास के लिए लोग बड़ी-बड़ी रियासतं बरबाद कर देते हैं। पण्डाजी, मैंने सभा में यही प्रस्ताव पेश किया है कि जमींदारों को अपनी जायदाद बेचने का अधिकार न रहे। लेकिन जो जायदाद धर्म-कार्य के लिए बेची जाय, उसे मैं बेचना नहीं कहता।"
सूरदास-"धरमावतार, मेरा तो इस जमीन के साथ इतना ही नाता है कि जब तक जिऊँ, इसकी रक्षा करूँ, और मल, तो इसे ज्यों-का-त्यों छोड़ जाऊँ।”
राजा साहब-"लेकिन यह तो सोचा कि तुम अपनी जमीन का एक भाग केवल इसलिए दूसरे को दे रहे हो कि मंदिर आदि बनवाने के लिए रुपये मिल जायँ।”
नायकराम-“बोलो सूरे, महाराज की इस बात का क्या जवाब देते हो?"
सूरदास-"मैं सरकार की बातों का जबाव देने जोग हूँ कि जबाब दूँ? लेकिन इतना तो सरकार जानते ही है कि लोग उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ लेते हैं। साहब पहले तो न बोलेंगे, फिर धीरे-धीरे हाता बना लेंगे, कोई मंदिर में जाने न पायेगा, उनमें कौन राज-रोज लड़ाई करेगा।"
नायकराम—“दीनबंधु, सूरदास ने यह बात पकी कही, बड़े आदमियों से कौन लड़ता फिरेगा?"
राजा साहब—"साहब क्या करेंगे, क्या तुम्हारा मंदिर खोदकर फेंक देंगे?"
नायकराम—"बोलो सूरे, अब क्या कहते हो?"
सूरदास—"सरकार, गरीब की घरवाली गाँव-भर की भावज होती है। साहब किरस्तान हैं, धरमशाले में तमाकू का गोदाम बनायेंगे, मंदिर में उनके मजर सोयेंगे, कुएँ पर उनके मजूरों का अड्डा होगा, बहू-बेटियाँ पानी भरने न जा सकेंगी। साहब न करेंगे, साहब के लड़के करेंगे। मेरे बाप-दादों का नाम डूब जायगा सरकार, मुझे इस दलदल में न फँसाइए।"