पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/८८

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सोफ़िया को इन्दु के साथ रहने चार महीने गुजर गये। अपने घर और घरवालो? की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समाचार न पूछती। वह कभी हवा खाने भी न जाती कि कहीं मामा से साक्षात् न हो जाय। यद्यपि इन्दु ने उसकी परिस्थिति को सबसे गुप्त रखा था; पर अनुमान से सभी प्राणी उसकी यथार्थ दशा से परिचित हो गये थे। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यह ख्याल रहता था कि कोई ऐसी बात न होने पावे, जो उसे अप्रिय प्रतीत हो! इन्दु को तो उससे इतना प्रेम हो गया था कि अधिकतर उसी के पास बैठी रहती। उसकी संगति में इंदु को भी धर्म और दर्शन के ग्रंथों से रुचि होने लगी।

घर टपकता हो, तो उसकी मरम्मत की जाती है; गिर जाय, तो उसे छोड़ दिया जाता है। सोफी को जब ज्ञात हुआ कि इन लोगों को मेरी सब बाते मालूम हो गई, तो उसने परदा रखने की चेष्टा करनी छोड़ दी; धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन में डूब गई। पुरानी कुदूरते दिल से मिटने लगीं। माता के कठोर वाक्य-बाणों का घाव भरने लगा। वह संकीर्णता, जो व्यक्तिगत भावों और चिन्ताओं को अनुचित महत्त्व दे देती है, इस सेवा और सद्व्यवहार के क्षेत्र में आकर तुच्छ जान पड़ने लगी। मन ने कहा, यह मामा का दोष नहीं, उनकी धार्मिक अनुदारता का दोष है; उनका विचार-क्षेत्र परिमित हैं, उनमें विचार-स्वातन्त्र्य का सम्मान करने की क्षमता ही नहीं, मैं व्यर्थ उनसे रुष्ट हो रही हूँ। यही एक काँटा था, जो उसके अन्तस्तल में सदैव खटकता रहता था। जब वह निकल गया, तो चित्त शांत हो गया। उसका जीवन धर्म-ग्रन्थों के अवलोकन और धर्म-सिद्धान्तों के मनन तथा चिन्तन में व्यतीत होने लगा। अनुराग अन्तर्वेदना की सबसे उत्तम औषधि है।

किन्तु इस मनन और अवलोकन से उसका चित्त शांत होता हो, यह बात न थी। नाना प्रकार की शंकाएँ नित्य उपस्थित होती रहती थीं-जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रत्येक धर्म में इसके विविध उत्तर मिलते थे; पर एक भी ऐसा नहीं मिला, जो मन में बैठ जाय। ये विभूतियाँ क्या हैं, क्या केवल भक्तों की कपोल-कल्पनाएँ हैं? सबसे जटिल समस्या यह थी कि उपासना का उद्देश्य क्या है? ईश्वर क्यों मनुष्यों से अपनी उपासना करने का अनुरोध करता है, इससे उसका क्या अभिप्राय है? क्या वह अपनी ही सृष्टि से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होता है? वह इन प्रश्नों की मीमांसा में इतनी तल्लीन रहती कि कई-कई दिन कमरे के बाहर न निकलती, खाने-पीने की सुधि न रहती, यहाँ तक कि कभी-कभी इन्दु का आना उसे बुरा मालूम होता।

एक दिन प्रातःकाल वह कोई धर्म-ग्रंथ पढ़ रही थी कि इन्दु आकर बैठ गई। उसका