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रंगभूमि


मुख उदास था। सोफिया उसकी ओर आकृष्ट न हुई, पूर्ववत् छुस्तक देखने में मग्न रही। इंदु बोली—“सोफी, अब यहाँ दो-चार दिन की और मेहमान हूँ, मुझे मूल तो न जाओगी?"

सोफी ने बिना सिर उठाये हो कहा—"हाँ।”

इंदु—"तुम्हारा मन तो अपनी किताबों में बहल जायगा, मेरी याद भी न आयेगी पर मुझसे तुम्हारे बिना एक दिन न रहा जायगा।"

सोफी ने किताब की तरफ देखते हुए कहा—"हाँ।"

इंदु—"फिर न जाने कब भेंट हो। सारे दिन अकेले पड़े-पड़े विभूरा करूंगी।"

सोफी ने किताब का पन्ना उलटकर कहा—"हाँ।”

इंदु से सोफिया की निष्ठुरता अब न सहो गई। किसी और समय वह रुष्ट होकर चली जाती, अथवा उसे स्वाध्या में मग्न देखकर कमरे में पाँव ही न रखती; किन्तु इस समय उसका कोमल हृदय वियोग-व्यथा से भरा हुआ था, उसमें मान का स्थान नहीं था। रोकर बोली-“बहन, ईश्वर के लिए जरा पुस्तक बंद कर दो; चली जाऊँगी, तो फिर खूब पढ़ना। वहाँ से तुम्हे छेड़ने न आऊँगी।"

सोफी ने इंदु की ओर देखा, मानों समाधि टूटी! उसकी आँखों में आँसू थे, मुख उतरा हुआ, सिर के बाल बिखरे हुए। बोली-"अरे! इंदु, बात क्या है? रोती क्यों हो?"

इंदु-"तुम अपनी किताब देखो, तुम्हें किसी के रोने-धोने की क्या परवा है।

ईश्वर ने न जाने क्यों मुझे तुझसा हृदय नहीं दिया।"

सोफिया-“बहन, क्षमा करना, मैं एक बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। अभी तक वह गुत्थी नहीं सुलझी। मैं मूर्ति पूजा को सर्वथा मिथ्या समझती थी। मेरा विचार था "कि ऋषियों ने केवल मुखों की आध्यात्मिक शांति के लिए यह व्यवस्था कर दी है। लेकिन इस ग्रन्थ में मूर्ति-पूजा का समर्थन ऐसी विद्वत्ता-पूर्ण युक्तियों से किया गया है कि आज से मैं सूर्ति-पूजा की कायल हो गई। लेखक ने इसे वैज्ञानिक सिद्धांतों से सिद्ध किया है। यहाँ तक कि मूर्तियों का आकार-प्रकार भी वैज्ञानिक नियमों ही के आधार पर अवलंबित बतलाया है।"

इंदु-"मेरे लिए बुलाबा आ गया। तीसरे दिन चली जाऊँगी।"

सोफिया-"यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, फिर मैं यहाँ कैसे रहूँगी?"

इस वाक्य में सहानुभुति नहीं, केवल स्वहित था। किंतु इंदु ने इसका आशय यह समझा कि सोफी को मेरा वियोग असह्य होगा। बोली-"तुम्हारा जी तो किताबों में बहल जायगा। हाँ, मैं तुम्हारी याद में तड़पा करूँगी। सच कहती हूँ, तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी चित्त से न उतरेगी, यह मोहिनी मूर्ति आँखों के सामने फिरा करेगी। बहन, अगर तुम्हें बुरा न लगे, तो एक याचना करूँ। क्या यह संभव नहीं हो सकता कि तुम भी कुछ दिन मेरे साथ रहो? तुम्हारे सत्संग से मेरा जीवन सार्थक हो जायगा। मैं इसके लिए तुम्हारी सदैव अनुगृहीत रहूँगी।"