पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
९३
रंगभूमि

इंदु—"यह समस्या तो पहले ही उपस्थित हो चुकी

विनय—"बहन, मुझे तुम्हारी बातों से डर लग रहा है।"

इंदु—"इसीलिए कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो; लेकिन वास्तव में तुम उससे बहुत गहरे पानी में हो, जितना तुम समझते हो। क्या तुम समझते हो कि तुम्हारा कई-कई दिनों तक घर में न आना, नित्य सेवा समिति के कामों में व्यस्त रहना, मिस सोफिया की ओर आँख उठाकर न देखना, उसके साये से भागना, उस अंतईद्व को छिपा सकता है, जो तुम्हारे हृदय-तल में विकराल रूप से छिड़ा हुआ है? लेकिन याद रखना, इस द्वंद्व की एक झंकार भी न सुनाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जायगा। सोफिया तुम्हार! इतना सम्मान करती है, जितना कोई सती अपने पुरुष का भी न करती होगी। वह तुम्हारी भक्ति करती है। तुम्हारे संयम, त्याग और सेवा ने उसे मोहित कर लिया है। लेकिन, अगर मुझे धोखा नहीं हुआ है, तो उसकी भक्ति में प्रणय का लेश भी नहीं है। यद्यपि तुम्हें सलाह देना व्यर्थ है, क्योंकि तुम इस मार्ग की कठिनाइयों को खूब जानते हो, तथापि मैं तुमसे यही अनुरोध करती हूँ कि तुम कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओ। तब तक कदाचित् सोफी भी अपने लिए कोई-न-कोई रास्ता ढूँढ़ निकालेगी। संभव है, इस समय सचेत हो जाने से दो जीवनों का सर्वनाश होने से बच जाय।"

विनय—"बहन, जब तुम सब कुछ जानती हो हो, तो तुमने क्या छिपाऊँ। अब मैं सचेत नहीं हो सकता। इन चार-पाँच महीनों में मैंने जो मानसिक ताप सहन किया है, उसे मेरा हृदय ही जानता है। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, मैं आँखें खोलकर गढ़े में गिर रहा हूँ, जान-बूझकर विष का प्याला पी रहा हूँ। कोई बाबा, कोई कठिनाई, कोई शंका अब मुझे सर्वनाश से नहीं बचा सकतो। हाँ, इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इस आग को एक चिनगारो या एक लपट भी साफो त न पहुँचेगी। मेरा सारा शरीर भस्म हो जाय, हड्डियाँ तक राख हो जायँ; पर सोफी को उस ज्वाला की झठक तक न दिखाई देगी। मैंने भी यही निश्चय किया है कि जितनी जल्दी हो सके, मैं यहाँ से चला जाऊँ-अपनी रक्षा के लिए नहीं, डीफो की रक्षा के लिए। आह! इससे तो यह कहीं अच्छा था कि सोफी ने मुझे उसी आग में जल जाने दिया होता; मेरा परदा ढका रह जाता। अगर अभ्माँ को यह बात मालूम हो गई, तो उनको क्या दशा होगी। इसको कलना ही से मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं। बस, अब मेरे लिए मुँह में कालिख लगाकर कहीं डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है।"

यह कहकर विनयसिंह सहसा बाहर चले गये। इंदु'बैठो-बैठो' कहती रह गई। बढ़ इस समय आवेश में उससे बहुत ज्यादा कह गरे थे, जितना वह कहना चाहते थे। और देर तक बैठते, तो न जाने और क्या-क्या कह जाते। इंदु की दशा उस प्राणी की-सी थी, जिसके पैर बँधे हों, और सामने उसका घर जल रहा हो। वह देख रही थी, यह आग सारे घर को जला देगी; विनय के ऊँचे-ऊँचे मंसूबे, माता की बड़ी-बड़ी अभिला-बाएँ, पिता के बड़े-बड़े अनुष्ठान, सब विध्वंस हो जायेंगे। वह इन्हीं शोकमय विचारों में