तो वह इनकार न करते। ऐसी दशा में आप क्योंकर आशा कर सकतो हैं कि मैं उनकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करूँ।”
जाह्नवी—"वह तुम्हारे स्वामी हैं, उनकी सभी बातें तुम्हें माननी पड़ेंगी।"
इंदु—"चाहे वह मेरी जरा-जरा-सा बातें भी न मानें?"
जाह्नवी---"हाँ, उन्हें इसका अख्तियार है। मुझे लज्जा आती है कि मेरे उपदेशों का तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। मैं तुम्हें पति-परायणा सती देखना चाहती हूँ, जिसे अपने पुरुप की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का जरा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने को कहें, तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो। तुम इतने ही में घबरा गई?"
इंदु—'आप मुझसे वह करने को कहती हैं, जो मेरे लिए असंभव है।"
जाह्ववी—"चुप रहो, मैं तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें नहीं सुन सकती। मुझे भय हो रहा है कि कहीं सोफी के विचार-स्वातंत्र्य का जादू तुम्हारे ऊपर भी तो नहीं चल गया!”
इंदु ने इसका कुछ उत्तर न दिया। भय होता था कि मेरे मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल पड़े, जिससे अम्माँ के मन में यह संदेह और भी जम जाय, तो बेचारी सोफी का यहाँ रहना ही कठिन हो जाय। वह रास्ते-भर मौन धारण किये बैठी रही। जब गाड़ी फिर मकान पर पहुँची, और वह उतरकर अपने कमरे की ओर चली, तो जाह्नवी ने कहा—"बेटी, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, महेंद्र से इस विषय में अब एक शब्द भी न कहना, नहीं तो मुझे बहुत दुःख होगा।"
इंदु ने माता को मर्माहत भाव से देखा, और अपने कमरे में चली गई। सौभाग्य से महेंद्रकुमार भोजन करके सीधे बाहर चले गये, नहीं तो इंदु के लिए अपने उद्गारों का रोकना अत्यन्त कठिन हो जाता। उनके मन में रह-रहकर इच्छा होती थी कि चल-कर सोफिया से क्षमा माँगूँ, साफ-साफ कह दूँ-बहन, मेरा कुछ बश नहीं है, मैं कहने को रानी हूँ, वास्तव में मुझे उतनी स्वाधीनता भी नहीं है, जितनी मेरे घर की महरियों को। लेकिन यह सोचकर रह जाती थी कि पति-निंदा मेरी धर्म-मयांदा के प्रतिकूल है। मैं सोफी की निगाहों में गिर जाऊँगी। वह समझेगा, इसमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है।
नौ बजे विनयसिंह उससे मिलने आये। वह मानसिक अशांति की दशा में बैठी हुई अपने सन्दूकों में से सोफी के लिए खरीदे हुए कपड़े निकाल रही थी, और सोच रहा थी कि इन्हें उसके पास कैसे भेजूँ। खुद जाने का साहरू न होता था। विनयसिंह को देखकर बोली—"क्यों विनय, अगर तुम्हारी स्त्री अपनी किसो सहेली को कुछ दिनों के लिए अपने साथ रखना चाहे, तो तुम उसे मना कर दोगे, या खुश होगे?”
विनय—"मेरे सामने यह समस्या कभी आयेगी ही नहीं, इसलिए मैं इसकी कल्पना करके अपने मस्तिष्क को कष्ट नहीं देना चाहता।"