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रंगभूमि


की थी, तो मैं बीमार पड़ी। डॉक्टर गंगुली मेरी दवा करने के लिए आये। हृदय का रोग था, जी घबराया करता, मानों किसी ने उच्चाटन-मन्त्र मार दिया हो। डॉक्टर महोदय ने मुझे महाभारत पढ़कर सुनाना शुरू किया। उसमें मेरा ऐसा जी लगा कि कभी-कभी आधी रात तक बैठी पढ़ा करती। थक जाती तो डॉक्टर साहब से पढ़वाकर सुनती। फिर तो वीरता पूर्ण कथाओं के पढ़ने का मुझे ऐसा चस्का लगा कि राजपूतों की ऐसी कोई कथा नहीं, जो मैंने न पढ़ी हो। उसी समय से मेरे मन में जाति-प्रेम का भाव अंकुरित हुआ। एक नई अभिलाषा उत्पन्न हुई-मेरी कोख से भी कोई ऐसा पुत्र जन्म लेता, जो अभिमन्यु, दुर्गादास और प्रताप की भाँति जाति का मस्तक ऊँचा करता। मैंने व्रत किया कि पुत्र हुआ तो उसे देश और जाति के हित के लिए समर्पित कर दूँगी। मैं उन दिनों तपस्विनी की भाँति जमीन पर सोती, केवल एक बार रूखा भोजन करती, अपने बरतन तक अपने हाथ से धोती थी। एक वे देवियाँ थीं, जो जाति की मर्यादा रखने के लिए प्राण तक दे देती थीं; एक मैं अभागिनी हूँ कि लोक-परलोक की सब चिन्ताएँ छोड़कर केवल विषय-वासनाओं में लिप्त हूँ। मुझे जाति की। इस अधोगति को देखकर अपनी विलासिता पर लज्जा आती थी। ईश्वर ने मेरी सुन ली। तीसरे साल विनय का जन्म हुआ। मैंने बाल्यावस्था ही से उसे कठिनाइयों का अभ्यास कराना शुरू किया। न कभी गद्दों पर सुलाती, न कभी महरियों और दाइयों को गोद में जाने देती, न कभी मेवे खाने देती। दस वर्ष की अवस्था तक केवल धार्मिक कथाओं द्वारा उसकी शिक्षा हुई। इसके बाद मैंने उसे डॉक्टर गंगुली के साथ छोड़ दिया। मुझे उन्हीं पर पूरा विश्वास था; और मुझे इसका गर्व है कि विनय की शिक्षा-दीक्षा का का भार जिस पुरुप पर रखा, वह इसके सर्वथा योग्य था। विनय पृथ्वी के अधिकांश प्रांतों का पर्यटन कर चुका है। संस्कृत और भारतीय भापाओं के अतिरिक्त योरप की प्रधान भाषाओं का भी उसे अच्छा गान है। संगीत का उसे इतना अभ्यास है कि अच्छे-अच्छे कलावंत उसके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकते। नित्य कंबल विछाकर जमीन पर सोता है, और कंबल ही ओढ़ता है। पैदल चलने में कई बार इनाम पा चुका है। जल-पान के लिए मुट्ठी-भर चने, भोजन के लिए रोटी और साग, बस इसके सिवा संसार के और सभी भोज्य-पदार्थ उसके लिए वर्जित-से हैं। बेटी, मैं तुझसे कहाँ तक कहूँ, पूरा त्यागा है। उसके त्याग का सबसे उत्तम फल यह हुआ कि उसके पिता को भी त्यागा बनना पड़ा। जवान बेटे के सामने बूढ़ा बार के विलास का दास बना रह सकता! मैं समझता हूँ कि कि विपय-भोग से उनका मन तृप्त हो गया, और बहुत अच्छा हुआ। त्यागी पुत्र का भोगी पिता अत्यन्त हास्यास्पद दृश्य होता। वह मुक्त हृदय से विनय के सत्कायों में भाग लेते हैं और मैं कह सकतो हूँ कि उनके अनुराग के बगैर विनय को कभी इतनी सफलता न प्राप्त होती। समिति में इस समय एक सौ नवयुवक हैं, जिनमें कितने ही संपन्न घरानों के हैं। कुँवर साहब की इच्छा है कि समिति के सदस्यों की पूर्ण संख्या पाँच सौ तक बढ़ा दी जाय। डॉक्टर गंगुली इस वृद्धावस्था में भी अदम्य उत्साह से