किसी को कुछ न सूझा। साम्यवादी मस्तिष्क की यही विशेषता है कि वह ऐसी ही बात सोचेगा जो सबको सूझ जाय। जो बात सर्वसाधारण की सूझ के परे होती है वह साम्यवादी मस्तिष्क को कभी सूझ ही नहीं सकती।
एक महाशय ने पूछी---"रूस में तो होली होती नहीं।"
"जी नहीं।"
"तब तो केवल यही हो सकता है कि या तो इसमें होली खेलने की प्रथा स्थापित हो अथवा हिन्दुस्तान में होली बन्द कर दी जाय।इनमें से कौन सा कार्य सरल है?"
"दोनों कार्य कठिन हैं।"
"यह बात ठीक है! मान लिया कि दोनों कठिन हैं।"
"यह बात आप साम्यवाद के विरुद्ध कर रहे हैं कि थोड़े से व्यक्ति एक बात पर विचार कर रहे हैं। सबको विचार करने का अवसर देना चाहिए।"
"तो सभा का आयोजन किया जाय, उससे सब लोग विचार कर लेंगे।"
"हाँ, यह ठीक है। ऐसा ही होना चाहिए।" अतः दूसरे दिन संध्या समय एक सभा की गई। अपनेराम भी उसमें सम्मिलित हुए, यद्यपि अपने राम साम्यवादी नहीं है; परन्तु कुछ साम्यवादी मित्रों की कदाचित यह आशा है कि आगे चलकर अपनेराम भी उनके गोल में सम्मिलित हो जायेंगे---इसी कारण वे अपनेराम के साथ खास रियायत करते हैं।"
खैर साहब, सभा के समय के पन्द्रह मिनट पूर्व अपनेराम सभास्थल में जा पहुंँचे। कुछ लोग आ गये थे और कुछ आ रहे थे। अपनेराम एक कोने में जा बैठे।
सभा का समय हो गया; परन्तु मन्त्री जी गायब थे। अपनेराम ने पूछा---"क्या देर-दार है?"
"जरा मन्त्री जी आ जाए तब कार्यवाही आरम्भ हो।"