पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
-१३३-
 

"बस यहाँ तो वही नित्य के पापड़ बेलना---आप अपनी कहिये! आज कार नहीं लाये?"

"ऐसे ही टहलता हुआ चला आया। कार लड़के-बच्चों को सिनेमा ले गई है।"

"यह कहो! और क्या खबर है?"

"खबर यह है कि कल लखनऊ चलते हो?"

"लखनऊ! हाँ काम तो है। तुम क्यों जा रहे हो?"

"ऐसे ही घूमने-फिरने! बहुत दिनों से कहीं गया नहीं इस कारण तबियत मचल रही है।"

"हूँ तबियत मचल रही है--मैं सब समझता हूँ।" चन्द्रकान्त ने मुस्कराकर सिर हिलाते हुये कहा।

रजनीगन्धा महाशय भी मुस्करा दिये और बोले---"चलोगे?"

"चलो! मुझे तो जाना ही है। रेल से चलोगे या कार से!"

"कार ले चलेंगे। कल सबेरे चलो। दिन भर घूमें फिरें, तुम अपना काम कर लेना। रात को होटल में ठहर जाँयेंगे।"

"वह तो तू ठहरेगा ही---रजनीगन्धा जो ठहरा रात को ही मह-केगा।" चन्द्रकान्त ने मुस्कराते हुये रहस्यपूर्ण दृष्टि से कहा।

"हाँ तो बोलो---पक्का रहा।"

"अभी बताता हूँ।"

यह कह कर चंद्रकान्त ने अपने सहकारी से कहा---"जरा वह लिस्ट तो निकालना-देखें कौन कौन चीज लानी हैं।"

सहकारी ने सूची निकाल कर दी। चन्द्रकान्त उसे ध्यान-पूर्वक देख कर सहकारी से बोले---"इतनी सब चीज आवेंगी?"

"हाँ आना तो सभी चाहिये!"

"देखो! कल दिन भर में काम हो जायगा तो आजाँयगी।"

"तो परसों भी ठहर जाँयगे--शाम तक काम हो जायगा बस उसी समय चल देंगे।" रजनीगन्धा ने कहा।

"हाँ! हाँ! अच्छा पक्का रहा।"