घनश्याम—(एक ठण्डी साँस भरकर) हाँ उतरा था; परन्तु व्यर्थ। वहाँ अब मेरा क्या रखा है?
अमरनाथ—परन्तु करो क्या। हृदय नहीं मानता है—क्यों? और सच पूछो तो बात ही ऐसी है। यदि तुम्हारे स्थान पर मैं होता, तो मैं भी ऐसा ही करता।
घनश्याम—क्या कहूँ मित्र, मैं तो हार गया। तुम तो जानते ही हो कि मुझे लखनऊ आकर रहे एक वर्ष हो गया और जब से यहाँ आया हूँ उन्हें ढूँढ़ने में कुछ भी कसर उठा नहीं रखी; परन्तु सब व्यर्थ।
अमरनाथ—उन्होंने उन्नाव न जाने क्यों छोड़ दिया और कब छोड़ा इसका भी कोई पता नहीं चलता।
घनश्याम—इसका तो पता चल गया न, कि वे लोग मेरे चले जाने के एक वर्ष पश्चात् उन्नाव से चले गए; परन्तु कहाँ गये, यह नहीं मालूम।
अमरनाथ—यह किससे मालूम हुआ?
घनश्याम—उसी मकान वाले से, जिसके मकान में हम लोग रहते थे।
अमरनाथ—हा शोक!
घनश्याम—कुछ नहीं, यह सब मेरे ही कर्मों का फल है। यदि मैं उन्हें छोड़कर न जाता; यदि गया था, तो उनकी खोज-खबर लेता रहता। परन्तु मैं तो दक्षिण जाकर रुपया कमाने में इतना व्यस्त रहा कि कभी याद ही न आई। और जो आई भी, तो क्षणमात्र के लिए। उफ, कोई भी अपने घर को भूल जाता है। मैं ही ऐसा अधम—
अमरनाथ—(बात काटकर) अजी नहीं, सब समय की बात है।
घनश्याम—मैं दक्षिण न जाता, तो अच्छा था।
अमरनाथ—तुम्हारा दक्षिण जाना तो व्यर्थ नहीं हुआ। यदि न जाते तो इतना धन•••।
घनश्याम—अजी चूल्हे में जाय धन। ऐसा धन किस काम का। मेरे हृदय में सुख-शान्ति नहीं तो धन किस मर्ज की दवा है।