पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७२

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अमरनाथ—ऐं, हाथ में लाल डोरा क्यों बाँधा है?

घनश्याम—इसकी तो बात ही भूल गया। यह राखी है।

अमरनाथ—भई वाह, अच्छी राखी है। लाल डोरे को राखी बताते हो। यह किसने बाँधी है। किसी बड़े कञ्जूस ब्राह्मण ने बाँधी होगी। दुष्ट ने एक पैसा तक खरचना पाप समझा। डोरे ही से काम निकाला।

घनश्याम—संसार में यदि कोई बढ़िया-से-बढ़िया राखी बन सकती है, तो मुझे उससे भी कहीं अधिक प्यारा यह लाल डोरा हैं।—यह कह कर घनश्याम ने उसे खोलकर बड़े यत्नपूर्वक अपने बक्स में रख लिया।

अमरनाथ—भई तुम भी विचित्र मनुष्य हो। आखिर यह डोरा बाँधा किसने है?

घनश्याम—एक बालिका ने।

पाठक समझ गए होंगे कि घनश्याम कौन है।

अमरनाथ—बालिका ने कैसे बाँधा और कहाँ?

घनश्याम—कानपुर में।

घनश्याम ने सारी घटना कह सुनाई।

अमरनाथ—यदि यह बात है, तो सत्य ही यह डोरा अमूल्य है।

घनश्याम—न जाने क्यों उस बालिका का ध्यान मेरे मन से नहीं उतरता।

अमरनाथ—उसकी सरलता तथा प्रेम ने तुम्हारे हृदय पर प्रभाव डाला है। भला उसका नाम क्या है?

घनश्याम—नाम तो मुझे नहीं मालूम। भीतर से किसी ने उसका नाम लेकर पुकारा था; परन्तु मैं सुन न सका।

अमरनाथ—अच्छा, खैर। अब तुमने क्या करना विचारा है?

घनश्याम—धैर्य धर कर चुपचाम बैठने के अतिरिक्त और मैं कर ही क्या सकता हूँ। मुझसे जो हो सका, मैं कर चुका।

अमरनाथ—हाँ, यही ठीक भी है। ईश्वर पर छोड़ दो! देखो क्या होता है।