पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
-१६५-
 

घनश्याम—आओ यार, बड़ी उमर—अभी तुम्हारी ही याद हो रही थी।

अमरनाथ—इस समय बोलिये नहीं, नहीं एकाध को मार बैठूँगा।

दूसरा—जान पड़ता है, कहीं से पिट कर आए हो।

अमरनाथ—तू फिर बोला—क्यों?

दूसरा—क्यों, बोलना किसी के हाथ बेच खाया है?

अमरनाथ—अच्छा, दिल्लगी छोड़ो। एक आवश्यक बात है।

सब उत्सुक होकर बोले—कहो, कहो, क्या बात है?

अमरनाथ—(घनश्याम से) तुम्हारे लिए दुलहन ढूँढ़ ली है।

सब—(एक स्वर से) फिर क्या, तुम्हारी चाँदी है!

अमरनाथ—फिर वही दिल्लगी। यार तुम लोग अजीब आदमी हो!

तीसरा—अच्छा बताओ, कहाँ ढूँढ़ी?

अमरनाथ—यहीं, लखनऊ में।

दूसरा—लड़की का पिता क्या करता है?

अमरनाथ—पिता तो स्वर्गवास करता है।

तीसरा—यह बुरी बात है।

अमरनाथ—लड़की है और उसकी माँ। बस, तीसरा कोई नहीं।

विवाह में कुछ मिलेगा भी नहीं। लड़की की माता बड़ी गरीब है।

दूसरा—यह उससे भी बुरी बात है।

तीसरा—उल्लू मर गये, पट्ठे छोड़ गए। घर भी ढूँढ़ा तो गरीब। कहाँ हमारे घनश्याम इतने धनाढ्य और कहाँ ससुराल इतनी दरिद्र! लोग क्या कहेंगे?

अमरनाथ—अरे भाई, कहने और न कहने वाले हमीं तुम हैं। और यहाँ उनका कौन बैठा है जो कहेगा।

घनश्यामदास ने एक ठन्डी साँस ली।

तीसरा—आपने क्या भलाई देखी, जो यह सम्बन्ध करना