माता ने पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और अश्रुबिन्दु विसर्जन किए, परन्तु वे बिन्दु सुख के थे अथवा दुःख के कौन कहे?
लड़की ने यह सब देख-सुनकर अपना मुँह खोल दिया और भैया-भैया कहती हुई घनश्याम से लिपट गई। घनश्याम ने देखा—लड़की कोई और नहीं, वही बालिका है, जिसने पाँच वर्ष पूर्व उनके राखी बाँधी थी और जिसकी याद प्रायः उन्हें आया करती थी।
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श्रावण का महीना है और श्रावणी का महोत्सव। घनश्यामदास की कोठी खूब सजाई गई है। घनश्याम अपने कमरे में बैठे एक पुस्तक पढ़ रहे हैं। इतने में एक दासी ने आकर कहा—बाबू भीतर चलो।—घनश्याम भीतर गए। माता ने उन्हें एक आसन पर बिठाया और उनकी भगिनी सरस्वती ने उनके तिलक लगाकर राखी बाँधी। घनश्याम ने दो अशर्फियाँ उनके हाथ में धर दी और मुस्कराकर बोले—क्या पैसे भी देने होंगे?
सरस्वती ने हँसकर कहा—नहीं भैया, ये अशर्फियाँ पैसों से अच्छी हैं। इनसे बहुत-से पैसे आवेंगे।