थे। सन्ध्या का समय था। विश्वनाथ सिंह के पास उनके कुछ मित्र तथा अन्य लोग बैठे हुए थे। ठाकुर साहब बात कर रहे थे और साथ ही मूंँछों पर हाथ फेरने तथा मरोड़ने का कार्य भी करते जा रहे थे। सहसा उनका एक समवयस्क बोल उठा---"यह मूँछे काहे धर धर मरोड़ रहे हो--अब बूढ़े होने को आये, अब मूँछे मरोड़ने का समय नहीं रहा।"
"हुँह! बूढ़े होने आये तो क्या हुआ? हैं तो मरद ही जनाने तो नहीं हो गये।" ठाकुर ने अकड़ कर कहा।
"तो क्या जिनके मूंँछे होती हैं वे ही मर्द होते हैं?" एक ने प्रश्न किया।
"और नहीं तो! बिना मूंँछ का भी कोई मरद है। सुनो कवि क्या कहता है। कहता है---"बिना कुचन की कामिनी, बिना मूंँछ का ज्वान ये तीनों फीके लगै बिना सुपारी पान!' समझे भोंदूमल?"
"हाँ तो यह ज्वान के लिए कहा गया है। आप अब ज्वान कहाँ रहे।"
अरे ज्वान से यहाँ मरद से मतलब है---बुड्ढे और ज्वान से मतलब नहीं है। जरा कविताई समझा करो। मूंँछ से बढ़ के मरद को और कोई शोभा नहीं है। पुराने जमाने में मूंँछ का बाल गिरवी रक्खा जाता था। हमारे बाबा पर एक दफा बड़ी मुसीबत पड़ी। एक महाजन से रुपया माँगा तो उसने कहा----'कोई चीज गिरौं धर दीजिए।' उस बखत हमारे बाबा की ऐसी हालत थी कि घर में ऐसी कोई चीज नहीं थी जिसे गिरौं धरते। जेवर के नाम हमारी दादी के पास चाँदी का छल्ला भी मौजूद नहीं था। जब महाजन को यह बात मालूम हुई तो वह बाबा से बोला---'अच्छा अपनी मूंँछ का बाल गिरौं धर दीजिए।' यह सुन कर बाबा आग हो गए और उसे खरी खोटी सुना कर चले आये। सो पहिले मूँछ की ऐसी कदर थी। अब अाजकल कहो तो पूरी मूँछ मुड़ा के धर दें--और दो चार रुपये में। और अब मूछे हैं कहाँ। हमारी लड़काई में मूँछे होती थीं---एक से एक आला---तसबीर की तरह देखा