करो! जब से मूंँछें मुड़ाई जाने लगी तब से देश जनाना हो गया---मरदानगी जाती रही।"
उनकी ये बातें सुनकर कुछ लोग हँसते थे, कुछ प्रभावित होते थे।
( २ )
उनका एक पुत्र थर्ड इयर में पढ़ता था। शहर में कालेज के बोडिंग हाउस में रहता था---वयस बीस वर्ष के लगभग थी। उसकी उगती हुई मूँछों को देख देख कर ठाकुर साहब को बड़ी प्रसन्नता होती थी। वह उस दिन का स्वप्न देखा करते थे जबकि उनके पुत्र जगन्नाथ सिंह को मूँछें भी उन्हीं की जैसी होंगी।
जगन्नाथ सिंह छुट्टियों में घर आया करता था। एक बार जब वह घर आया तो ठाकुर विश्वनाथ सिंह को यह देख कर फिट पा गया कि जगन्नाथ के अोठों पर उस्तरा फिरा हुआ है। पहले तो उन्हें अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ, परन्तु ध्यानपूर्वक देखने पर जब उन्हें निश्चय हो गया कि मूंँछें मुड़ाई गई हैं तो वह अापे के बाहर होगये। वह बोले---"क्यों रे जगन्नाथ मूँछें मुड़ा डालीं क्या?"
जगन्नाथ बोला---"मुड़ाई नहीं हैं, अपने हाथ से मूंँड़ी हैं।" इतना सुनते ही ठाकुर साहब का हार्टफेल होने लगा। अपना चित्त संँभालने का प्रयत्न करते हुए उन्होंने कहा---"मेरे जीते जी! अरे नालायक मुझे जिन्दा ही मारे डाल रहा है। तू इतना भी नहीं जानता कि जब तक माँ-बाप जिन्दा बैठे रहते हैं तब तक मूँछें नहीं मुँड़ाई जातीं? यही तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई है?
जगन्नाथ बोला---"ये सब पुराने विचार हैं चाचा! आजकल की सभ्यता में मूंँछें रखना व्यर्थ समझा जाता है।"
"यह नई सभ्यता तो मर्दो को जनाना बनाकर छोड़ेगी और तो कुछ रहा नहीं। एक मूंछों की लाज बाकी थी सो उसे भी तुम्हारे जैसे कुलकलंक खतम किये दे रहे हैं!"
जगन्नाथ ने पिता को समझाने का प्रयत्न किया पर उसके समझाने