शहर में तेली-तँबोली वैश्य बन जाते हैं--यद्यपि व वैश्यकर्मी तो होते ही हैं, अहीर-बारी इत्यादि ठाकुर बन जाते हैं, मोची-चमार कायस्थ और धाकर (निम्न श्रेणी के कान्यकुब्ज) कुलीन। इसी प्रकार बिस्वों में वृद्धि कर ली जाती है। अतः इस अन्धेरखाते से त्रिपाठी जी ने पूरा लाभ उठाया। शहर में आकर बीस बिस्वा के मुरादाबादी मिश्र बन गये।
'नया मुसलमान प्याज बहुत खाता है' की कहावत के अनुसार त्रिपाठी जी मिश्र बनकर कान्यकुब्जता की खराद पर चढ़ गये। एक तो कड़बा करेला दूसरे नीम चढ़ा। एक तो मिश्रजी पहले से ही कान्य-कुब्ज थे उस पर हो गये मुरादाबादी मिश्र। फिर क्या कहना था। ब्राह्मणत्व का पूरा ठेका उन्हीं को मिल गया।
संध्या का समय था और बाजार की छुट्टी का दिन ! मिश्रजी के द्वार पर भांग बन रही थी। तीन चार अन्य आदमी भी मौजूद थे। एक ध्यक्ति सिल पर भांग रगड़ रहा था। मिश्र नंगे बदन रानों तक धोती समेटे बैठे थे--कानों पर जनेऊ चढ़ा था। इसी समय एक पड़ौसी युवक उधर से निकला। मिश्रजी को देखकर खड़ा हो गया और बोला--"काहे मिश्र जी कान पर जनेऊ काहे चढ़ाये बैठे हो।"
"लघुशङ्का करके आये थे अभी हाथ नहीं धोये। जरा सा पानी देना हो।" मिश्रजी ने अन्तिम वाक्य भाँग पीसने वाले से कहा।
उसके पास एक पीतल की जलपूर्ण बाल्टी रक्खी थी उसमें लोटे से पानी लेकर वह बोला--"आओ!"
मिश्रजी ने हाथ धोकर कान पर से जनेऊ उतारा ! युवक ने पूछा--"क्यों मिश्र जी, जनेऊ कान पर क्यों चढ़ा लिया जाता है?"
"शास्त्र में लिखा है कि टट्टी-पेशाब के समय जनेऊ कान पर चढ़ा लेना चाहिए।"
"लेकिन क्यों? प्रश्न तो यह है।"
"यह आजकल के अँग्रेजी पढ़े हर बात में 'क्यों और काहे' लगा