पृष्ठ:रक्षा बंधन.djvu/५०

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प्रोफेसर साहब मुसकरा कर बोले--"तुम इसे खिलवाड़ समझती हो शीला !"

"और नहीं तो क्या है?"

"यदि इन खेलवाड़ों में से मेरा एक भी सफल हो जाय तो उससे जानती हो, मानव जाति का कितना उपकार हो सकता है?"

"जब मेरा ही उपकार नहीं होता तो मानव-जाति का क्या उपकार होगा।"

"बिना अपने उपकार का बलिदान किये मानव-जाति का उपकार नहीं होता।" प्रोफेसर ने परीक्षण नलिका में एक तरल पदार्थ डालते हुए कहा।

तरल पदार्थ डालते ही नलिका में से एक सुनहला प्रकाशपुंज निकल कर वायु में विलीन हो गया।

"बस, यही आतिशबाजी करते-करते जीवन समाप्त हो जायगा और समस्त अभिलाषाएँ मन में ही रह जायेंगी। अभी तक सन्तान का मुख देखना भी नसीब नहीं हुआ।"

"सन्तान ! सन्तान की चिन्ता मुझे नहीं है। सन्तान हो जाय तो अच्छा, न हो तो अच्छा।"

"मन समझाने के लिए चाहे जो समझ लो।"

"मन तो संसार समझाता है शीला, वास्तविकता को तो कदाचित् ही कोई जान पाता है। हम भारतीयों का तो समस्त जीवन मन समझाने में ही समाप्त हो जाता है।"

"हम वास्तविकता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ! हमारे वेद-शास्त्रों में क्या नहीं है?"

प्रोफेसर साहब परीक्षण नलिका को लेम्प पर से हटाकर हँसने लगे और शीला की ओर मुंह करके बोले—"हमारे घर में खजाना गढ़ा है, परन्तु जरा उसमें से एक रुपया निकाल कर दिखाओ, तो जानूँ। वेद-शास्त्रों में सब कुछ है, इस धारणा ने ही हमें इस पतन के गर्त में गिराया है। आज जिस रेडियो का एक स्विच घुमाकर तुम सैकड़ों-