( २ )
शीला दुखी रहती थी। उसकी धारणा थी कि वह एक पागल व्यक्ति के पल्ले बांध दी गई है। वह यौवन की सीमा को पार कर रही थी, उसकी वयस पैंतीस वर्ष से ऊपर हो चुकी थी। विवाह के पश्चात् कदाचित कुछ वर्ष तो उसने पति के साथ सुख पूर्वक बिताये, परन्तु उसके पश्चात् वह पति के प्रमपूर्ण व्यवहार से वंचित हो गई। उसका हृदय अब भी प्यासा था, उसका चित्त अब भी पति से प्रेमी के व्यवहार की मांग करता था, परन्तु उसे मिलती थी केवल उपेक्षा और निराशा।
प्रयोगशाला उसके लिए उतनी ही दुखदायी थी जितनी कि, एक सौत हो सकती है। उसका वश चलता तो वह प्रयोगशाला को नष्ट कर डालती।
सहसा एक दिन रात के दो बजे प्रयोगशाला में असाधारण खट-पट सुनकर वह जाग पड़ी। पहले तो कुछ क्षण पड़े ही पड़े सुनती रही—ऐसा प्रतीत होता था कि प्रयोगशाला में कोई कूद-फांद रहा है। अन्त में वह उठी और प्रयोगशाला में पहुंची। वहाँ जाकर उसने देखा कि, उसके पति महोदय हाथ में एक छोटी शीशी लिये हुए पागलों की भांति नाच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर उसके चित्त में घृणा उत्पन्न हुई—उसने सोचा कि प्रोफेसर महोदय विक्षिप्त हो गए। वह कुछ कर्कश स्वर में बोली—"यह क्या हो रहा है? क्या इसी प्रकार संसार का कल्याण होगा? संसार का कल्याण करने के पागलपन में तुम अपना मनुष्यत्व भी खोये दे रहे हो।"
प्रोफेसर ने लपक कर शीला के गले में हाथ डाल दिया और बोले—"शीला, जो मैं चाहता था वह मिल गया। इस शीशी को देखो, इस शीशी की पांच बूंदें तुम्हें सोलह वर्ष का यौवन प्रदान करने की क्षमता रखती हैं। इसकी पांच बूदें मनुष्य के शैथिल्योन्मुखी रक्त कोषों में पुनः इतनी गति ला सकती हैं कि उसका रूप रंग तथा शक्ति नवयौवन में पदार्पण करते हुए मनुष्य जैसे हो जायँ। मेरी शीला अब पुनः सोलह