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पाँचवाँ सर्ग।
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इनके इसी गुण पर लुब्ध होकर महर्षि ने इन्हें बच्चे की तरह पाला है । थाले बना कर उन्होंने इनको,समय समय पर,सींचा है,तृण की टट्टियाँ लगा कर जाड़े से इनकी रक्षा की है, और काँटों से घेर कर इन्हें पशुओं से खा लिये जाने से बचाया है।

"मुनिजन बड़े ही दयालु होते हैं। आपके आश्रम की हरिणियाँ जब बच्चे देती हैं तब ऋषि लोग उनके बच्चों की बेहद सेवा-शुश्रूषा करते हैं। आश्रम के पास पास सब कहीं जङ्गल है । उसमें साँप और बिच्छू आदि विषैले जन्तु भरे हुए हैं। उनसे बच्चों को कष्ट न पहुँचे,इस कारण ऋषि प्रायः उन्हें अपनी गोद से नहीं उतारते । उत्पन्न होने के बाद, दस-बारह दिन तक, वे उन्हें रात भर अपने उत्सङ्ग ही पर रखते हैं। अतएव उनके नाभि-नाल ऋषियों के शरीर ही पर गिर जाते हैं। परन्तु इससे वे ज़रा भी अप्रसन्न नहीं होते। जब ये बच्चे बढ़ कर कुछ बड़े होते हैं तब यज्ञ आदि बहुत ही आवश्यक क्रियाओं के निमित्त लाये गये कुशों को भी वे खाने लगते हैं। परन्तु,उन पर ऋषियों का अत्यन्त स्नेह होने के कारण, वे उन्हें ऐसा करने से भी नहीं रोकते । उनके धार्मिक कार्यों में चाहे भले ही विन्न आ जाय, पर मृगों के छौनों की इच्छा का वे विधात नहीं करना चाहते । आप की यह स्नेह-संवर्धित हरिण- सन्तति तो मजे में है ? उसे कोई कष्ट तो नहीं ?

"आपके तीर्थ-जलों का क्या हाल है ? उनमें कोई खराबी तो नहीं ? वे सूख तो नहीं गये ? पशु उन्हें गॅदला तो नहीं करते ? इन तीर्थ-जलों को इन तालाबों और बावलियों को-मैं आपके बड़े काम की चीज़ समझता हूँ। यही जल नित्य आपके स्नानादि के काम आते हैं । अग्निष्वात्तादि पितरों का तर्पण भी आप इन्हीं से करते हैं। इन्हीं के किनारे,रेत पर,आप अपने खेतों की उपज का षष्ठांश भी,राजा के लिए,रख छोड़ते हैं।

"बलि-वैश्वदेव के समय यदि कोई अतिथि आ जाय तो उसे विमुख जाने देना मना है। अतएव जिस जङ्गलीतृण-धान्य (साँवा, कोदो आदि) से आप अपने शरीर की भी रक्षा करते हैं और अतिथियों की क्षुधा भी शान्त करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं उसे,भूल से छूट आये हुए,गाँव और नगर के पशु खा तो नहीं जाते ?