पृष्ठ:रघुवंश.djvu/११९

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रघुवंश ।

"सब विद्याओं में निष्णात करके आप के गुरु ने आप को गृहस्था -श्रम सुख भोगने के लिए क्या प्रसन्नता-पूर्वक आज्ञा दे दी है ? ब्रह्मचर्य,वानप्रस्थ और संन्यास-इन तीनों आश्रमों पर उपकार करने का सामर्थ्य एक मात्र गृहस्थाश्रम ही में है। आपकी उम्र अब उसमें प्रवेश करने के सर्वथा योग्य है । आप मेरे परम पूज्य हैं । इस कारण सिर्फ आपके आगमन से ही मुझे आनन्द की विशेष प्राप्ति नहीं हो सकती । यदि आप दया करके मुझ से कुछ सेवा भी लें तो अवश्य मुझे बहुत कुछ आनन्द और सन्तोष हो सकता है । अतएव, आप मेरे लिए कोई काम बतावें-कुछ तो आज्ञा करें ? हाँ, भला यह तो कहिए कि आप ने जो मुझ पर यह कृपा की है वह आपने अपने ही मन से की है या अपने गुरु की आज्ञा से । वन से इतनी दूर मेरे पास आने का कारण क्या ?"

राजा रघु के मिट्टी के पात्र देख कर कौत्स,बिना कहे ही,अच्छी तरह समझ गया था कि यह अपना सर्वस्व दे चुका है। अब इसके पास कौड़ी नहीं । अतएव,यद्यपि राजा ने उसका बहुत ही आदर-सत्कार किया और बड़ी ही उदारता से वह उससे पेश आया, तथापि कौत्स को विश्वास हो गया कि इससे मेरी इच्छा पूर्ण होने की बहुतही कम आशा है। मन ही मन इस प्रकार विचार करके, उसने रघु के प्रश्नों का,नीचे लिखे अनुसार,उत्तर देना आरम्भ किया:-

"राजन् ! हमारे आश्रम में सब प्रकार कुशल है। किसी तरह की कोई विघ्न-बाधा नहीं। आपके राजा होते,भला,हम लोगों को कभी स्वप्न में भी कष्ट हो सकता है। बीच आकाश में सूर्य के रहते,मजाल है जो रात का अन्धकार अपना मुँह दिखाने का हौसला करे । लोगों की दृष्टि का प्रतिबन्ध करने के लिए उसे कदापि साहस नहीं हो सकता । हे महाभाग! पूजनीय पुरुषों का भक्ति-भाव-पूर्वक आदरातिथ्य करना तो आपके कुल की रीति ही है। आपने तो अपनी उस कुल-रीति से भी बढ़ कर मेरा सत्कार किया। पूजनीयों की पूजा करने में आप तो अपने पूर्वजों से भी आगे बढ़े हुए हैं। मैं आप से कुछ याचना करने के लिए आया था, परन्तु याचना का समय नहीं रहा । मैं बहुत देरी से आया । इसी से मुझे दुःख हो रहा है। अपनी सारी सम्पत्ति का दान सत्पात्रों को करके आप,