पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१४२

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छठा सर्ग।

प्रेमभरी दृष्टि से नहीं देखती-उसी तरह वह सुकुमारगात्री इन्दुमती भी उस,बन्धुरूपी कमलों को विकसित करने और शत्रुरूपी कीचड़ को सुखा डालने वाले,राजसूर्य को अपना प्रीतिपात्र न बना सकी । बना कैसे सकती ? सुकुमारता और उग्रता का साथ कहीं हो सकता है ?

जब इन्दुमती ने इस राजा को भी नापसन्द किया तब सुनन्दा उसे अपने साथ लेकर अनूप देश के राजा के पास गई। वहाँ पहुँच कर,जिसकी कान्ति कमल के भीतरी भाग की तरह गौर थी, जो सुन्दरता और विनय आदि सारे गुणों की खान थी, जिसके दाँत बहुत ही सुन्दर थे,और जो ब्रह्मा की रमणीय सृष्टि का सर्वोत्तम नमूना थी उस राज्यकन्या इन्दुमती से सुनन्दा ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया:-

"प्राचीन समय में कार्त-वीर्य नाम का एक ब्रह्मज्ञानी राजा हो चुका है। उसका दूसरा नाम सहस्रार्जुन था,क्योंकि युद्ध में उसके पराक्रम को देखकर यह मालूम होता था कि उसके दो नहीं,किन्तु हज़ार,भुजायें हैं। वह इतना प्रतापी था कि अठारहों द्वोपों में उसने यज्ञ-स्तम्भ गाड़ दिये थे। कोई द्वीप ऐसा न था जहाँ उसके किये हुए यज्ञों का चिह्न न हो। वह अपनी प्रजा का इतना अच्छी तरह रखन करता था कि 'राजा' की पदवी उस समय एक मात्र उसी को शोभा देती थी, दूसरों के लिए वह असाधारण हो रही थी। अपने प्रजा-जनों में से किसी के मन तक में अनुचित विचार उत्पन्न होते ही, वह, अपना धनुर्बाण लेकर, तत्काल ही उस मनुष्य के सामने जा पहुँचता था और उसके मानसिक कुविचार का वहीं नाश कर देता था। दूसरे राजा केवल वाणी और शरीर से किये गये अपराधों का ही प्रतीकार करते और अपराधियों को दण्ड देते हैं; परन्तु राजा कार्तवीर्य, ब्रह्मज्ञानी होने के कारण, मन में उत्पन्न हुए अपराधों का भी निवारण करने में सिद्ध-हस्त था। इससे उसके राज्य में किसी के मन में भी किसी और को दुःख पहुँचाने का दुर्विचार न उत्पन्न होने पाता था। लङ्कश्वर बड़ा ही प्रतापी राजा था। इन्द्र तक को उससे हार माननी पड़ी थी। परन्तु उसी इन्द्र-विजयी रावण की बीस भुजाओं को, एक बार,कार्तवीर्य ने अपने धन्वा की डोरी से खूब कस कर बाँध दिया। इस कारण, क्रोध और सन्ताप से जलते और अपने दसों मुखों से