पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१५०

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छठा सर्ग।


सुभीते का नहीं। और से मेरा तेज सहन भी न होगा। इन्द्र ने इस बात को मान लिया। वह बैल बना और ककुत्स्थ उस पर सवार हुआ। उस समय वह साक्षात् वृषभवाहन शङ्कर के समान मालूम होने लगा। उसने, युद्ध में, अपने बाणों से अनन्त दैत्यों का नाश करके साथ ही उनकी स्त्रियों के कपोलों पर बने हुए केसर, कस्तूरी आदि के वेल-बूटों का भी नाश कर दिया। उन्हें विधवा करके उनके चेहरों को उसने शृङ्गार-रहित कर डाला। यह न समझ कि अपना मतलब निकालने ही के लिए बैल बन कर इन्द्र ने ककुत्स्थ को अपने ऊपर बिठाया था। नहीं, युद्ध समाप्त होने पर, जब इन्द्र ने अपनी स्वाभाविक मनोरमणीय मूत्ति धारण की तब भी उसने ककुत्स्थ का बेहद आदर किया। यहाँ तक कि उसे सुरेश ने अपने आधे सिंहासन पर बिठा लिया। उस समय ककुत्स्थ और इन्द्र एक ही सिंहासन पर इतने पास पास बैठे कि ऐरावत को बार बार थपकारने के कारण इन्द्र के ढीले पड़ गये भुजबन्द से राजा ककुत्स्थ का भुजबन्द रगड़ खाने लगा। इसी ककुत्स्थ के वंश में दिलीप नामक एक महा कीर्तिमान और कुलदीपक राजा हुआ। उसका इरादा पूरे सौ यज्ञ करने का था। परन्तु उसने सोचा कि ऐसा न हो जो इन्द्र यह समझे कि पूरे एक सौ यज्ञ करके यह मेरी बराबरी करना चाहता है। अतएव इन्द्र के व्यर्थ द्वेष से बचने और उसे सन्तुष्ट रखने ही के लिए वह केवल निन्नानवेही यज्ञ करके रह गया। राजा दिलीप के शासन-समय में चोरी का कहीं नाम तक न था। फूल-बागों में और बड़े बड़े उद्यानों में विहार करने के लिए गई हुई स्त्रियाँ, जहाँ चाहती थीं, आनन्द से सो जाया करती थीं। सोते समय उनके वस्त्रों को हटाने या उड़ाने का साहस वायु तक को तो होता न था। चोरी करने के लिए भला कौन हाथ उठा सकता था ? इस समय उसका पुत्र रघु पिता के सिंहासन पर बैठा हुआ प्रजा का पालन कर रहा है। वह विश्वजित् नामक बहुत बड़ा यज्ञ कर चुका है। चारों दिशाओं को जीत कर उसने जो अनन्त सम्पत्ति प्राप्त की थी उसे इस यज्ञ में खर्च कर के, आज कल, वह मिट्टी के ही पात्रों से अपना काम चला रहा है। अपना सर्वस्व दान कर देने से अब उसके पास सम्पत्ति के नाम से केवल मिट्टो के वर्तन ही रह गये हैं। इस राजा का यश पर्वतों के शिखरों के