उसका प्रवेश हो गया। राज-मन्दिर के चौक में एक बड़ा ही मूल्यवान्
सिंहासन रक्खा हुआ था। उसी पर भोज-नरेश ने अज को आदरपूर्वक
बिठाया। फिर उसने मधुपर्क और अर्घ्य आदि से उसकी पूजा की। तदनन्तर थोड़े से रमणीय रत्न और रेशमी कपड़ों का एक जोड़ा उसने अज
के सामने रक्खा। इस समय विदर्भ-नगर की स्त्रियाँ, अज पर, अपने
कटाक्षों की वर्षा करने-उसे तिरछी नज़रों से देखने-लगी। दी गई चीज़ों
को अज ने स्त्रियों के कटाक्षों के साथही स्वीकार किया। उसने उन चीज़ों
को भी सहर्ष लिया और स्त्रियों के कटाक्षों पर भी, मनही मन, हर्ष प्रकट
किया। इस विधि के समाप्त हो जाने पर, रेशमी वस्त्र धारण किये हुए
अज को, राजा भोज के चतुर और नम्र सेवकों ने, वधू के पास पहुँचाया।
उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे नये चन्द्रमा के किरण-समूह ने,
स्वच्छ फेन से परिपूर्ण समुद्र को, तट की भूमि के पास पहुँचा दिया हो।
वहाँ, राजा भोज के परम-पूज्य और अग्निसमान तेजस्वी पुरोहित ने घी,
साकल्य और समिधा आदि से अग्नि की पूजा की। हवन हो चुकने पर,
उसी अग्नि को विवाह का साक्षी करके, उसने अज और इन्दुमती का
प्रन्थिबन्धन कर दिया-दोनों को वैवाहिक सूत्र में बाँध दिया। पासही
उगी हुई अशोकलता के कोमल पल्लव से आम के पल्लव का संयोग होने
से आम जैसे अत्यधिक शोभा पाता है वैसेही वधू इन्दुमती के हाथ को
अपने हाथ पर रखने से अज की शोभा भी अत्यधिक बढ़ गई। उस समय
का वह दृश्य बहुतही हृदयहारी हो गया। वर का हाथ कण्टकित हो
उठा-उस पर रोमाञ्च हो पाया। वधू की उँगलियाँ भी पसीने से तर
हो गई। उन दोनों के हाथों का इस तरह सात्विक-भाव-दर्शक परस्पर-
मिलाप होने पर यह मालूम होने लगा जैसे प्रेम-देवता ने अपनी वृत्ति उन्हें
एकसी बाँट दी हो। उन दोनों के मन में एक दूसरे के विषय में जो प्रीति
थी वह काँटे में तुली हुई सी जान पड़ी। न किसी में रत्ती भर कम, न
रत्ती भर अधिक। उस समय वे दोनों एक दूसरे को कनखियों देखने की
चेष्टा करने लगे। परन्तु, उनमें से एक भी यह न चाहता था कि यह बात
दूसरे को मालूम हो जाय। यदि भूल से उनकी आँखें आमने सामने हो
जाती थी तो तुरन्तही वे उन्हें नीची कर लेते थे। तिस पर भी एक दूसरे
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