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सातवाँ सर्ग।


न आई। उसने उनकी प्रार्थना स्वीकार न की। उसने साफ़ कह दिया कि बिना देखे मैं किसी के भी साथ विवाह करने का वचन नहीं दे सकती। जान पड़ता है, इसी से वे राजा लोग अप्रसन्न हो गये और स्वयंवर में नहीं आये। परन्तु हमारी समझ में इन्दुमती ने यह बहुत ही अच्छा किया जो उनमें से किसी को भी स्वीकार न किया। स्वयंवर में मनमाना पति आपही ढूँढ़ लेने का यदि वह निश्चय न करती तो- लक्ष्मी को नारायण के समान--उसे अज के सहश अनुरूप पति कभी न मिलता। अज-इन्दुमती की अलौकिक जोड़ी हमें तो लक्ष्मीनारायण ही की जोड़ी के समान सुन्दर जान पड़ती है। हमने, आज तक, ऐसा अप्रतिम रूप और कहीं नहीं देखा था। यदि ब्रह्मा इन दोनों को परस्पर न मिला देता तो इन्हें इतना सुन्दर बनाने के लिए उसने जो प्रचण्ड परिश्रम किया था वह सारा का सारा अकारथ जाता। हमारी भावना तो यह है कि ये दोनों--इन्दुमती और अज-निःसन्देह रति और मन्मथ के अवतार हैं। यदि ऐसा न होता तो इतनी अप्रगल्भ होने पर भी यह इन्दुमती, हज़ारों राजाओं में से अपने ही अनुरूप इस राजकुमार को किसी तरह ढूंढ़ निकालती। बात यह है कि मन को पूर्व-जन्म के संस्कारों का ज्ञान बना रहता है। इन्दुमती और अज का, पूर्व जन्म में, ज़रूर सङ्ग रहा होगा। उसी संस्कार की प्रेरणा से इन्दुमती ने अज को ही फिर अपना पति बनाया।"

इस तरह पुरवासिनी स्त्रियों के मुख से निकले हुए, कानों को अलौकिक आनन्द देने वाले, वचन सुनते सुनते अजकुमार राजा भोज के महल के पास पहुँच गया। जा कर उसने देखा कि द्वार पर जल से भरे कलश रक्खे हुए हैं। केले के खम्भ गड़े हुए हैं। बन्दनवार बँधे हुए हैं। अनेक प्रकार की मङ्गलदायक वस्तुओं और रचनाओं से महल की शोभा बढ़ रही है। द्वार पर पहुँच कर अजकुमार अपनी सवारी की हथिनी से उतर पड़ा। कामरूप-देश के राजा ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे महल के भीतर ले चला। वहाँ राजा भोज के दिखाये हुए चौक में उसने प्रवेश क्या किया मानो राज-मन्दिर में एकत्र हुई स्त्रियों के मन में ही वह घुस गया-राजा भोज के मन्दिर में प्रवेश होने के साथही स्त्रियों के मन में भी