पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१७०

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आठवाँ सर्ग।

अथर्ववेद के पूरे ज्ञाता महर्षि वशिष्ठ ने अज का अभिषेक-संस्कार विधिपूर्वक किया-अथर्ववेद में अभिषेक का जैसा विधान है उसी के अनुसार उन्होंने सब काम निबटाया। इस कारण अज का प्रताप, पौरुष और पराक्रम उसके शत्रुओं को दुःसह हो गया। वे उसका नाम सुनते ही थर थर काँपने लगे। अकेले अज का ही क्षात्र तेज उसके शत्रुओं को कैंपाने के लिए काफी था। वशिष्ठ के मन्त्र-प्रभाव से वह तेज और भी प्रखर हो गया। पवन के संयोग से अग्नि जैसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठता है वैसे ही ब्रह्म तेज के संयोग से अज का क्षात्र तेज भी पहले से अधिक तीव्र हो गया।

अज, किसी बात में, अपने पिता से कम न था। पिता की केवल राज्य-लक्ष्मी ही उसने न प्राप्त की थी; उसके सारे गुण भी उसने प्राप्त कर लिये थे। इस कारण उसकी प्रजा ने उस नये राजा को फिर से तरुण हुआ रघु ही समझा। उस समय दो चीज़ों के दो जोड़े बहुत ही अधिक शोभायमान हुए। एक तो, अज के साथ उसके बाप-दादे के सम्पत्तिशाली राज्य का संयोग होने से, अज और राज्य का जोड़ा पहले से अधिक शोभा- शाली हो गया। दूसरे, अज की स्वाभाविक नम्रता के साथ उसके नये यौवन का योग होने से, नम्रता और यौवन का जोड़ा विशेष शोभासम्पन्न हो गया। लम्बी लम्बी भुजाओं वाले–महाबाहु-अज ने, नई पाई हुई पृथ्वी का, नवोढ़ा वधू की तरह, सदय होकर भोग किया। उसने कहा:- "ऐसा न हो जो सख्ती करने से यह डर जाय। अतएव, अभी, कुछ दिन तक, इसका शासन और उपभोग लाड़-प्यार से ही करना चाहिए।" इस प्रकार के आचरण का फल यह हुआ कि उसकी सारी प्रजा उससे प्रसन्न हो गई। सब लोग यही समझने लगे कि राजा अकेले ही को सबसे अधिक चाहता है। समुद्र में सैकड़ों नदियाँ गिरती हैं-सैकड़ों उसका आश्रय लेती हैं परन्तु समुद्र उनमें से किसी को भी विमुख नहीं लौटाता; सब के साथ एक सा प्रीतिपूर्ण बर्ताव करता है। इसी तरह अज ने भी अपनी प्रजा में से किसी को भी अप्रसन्न होने का मौका न दिया। जो उस तक पहुँचा उसे उसने प्रसन्न करके ही छोड़ा। न उसने बहुत कठोर हो नीति का अवलम्बन किया और न बहुत कोमल ही का। कठोरता का

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