पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१७१

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रघुवंश।


व्यवहार करने की ज़रूरत पड़ने पर, कठोरता उसने दिखाई; पर बहुत अधिक नहीं। इसी तरह कोमलता का व्यवहार करने के लिए बाध्य होने पर कोमलता, से उसने काम लिया सही; पर इतना कोमल भी न हुआ कि कोई उससे डरे ही नहीं। कठोरता और कोमलता के बीच का मार्ग ग्रहण करके उसने-पवन जिस तरह पेड़ों को झुका कर छोड़ देता है उसी तरह-माण्डलिक राजाओं को झुका कर ही छोड़ दिया; उन्हें जड़ से नहीं उखाड़ा।

वृद्ध रघु को यह देख कर परमानन्द हुआ कि मेरे पुत्र को प्रजा इतना चाहती है और उसका राज्य सब तरह निष्कण्टक है। अब तक मोक्ष-साधन के उपायों में लगे रहने से उसे आत्मज्ञान भी हो गया था। अतएव, इस समय, उसने स्वर्ग के इन्द्रिय-भोग्य पदार्थों को भी तुच्छ समझा। उसने सोचा कि स्वर्ग के हों या पृथ्वी के, जितने भोग हैं, सभी विनाशवान हैं। उनकी इच्छा करना मूर्खता है। अतएव वह उनसे एकदम विरक्त हो गया। बात यह है कि इस वंश के राजाओं की यह रीति ही थी। वृद्ध होने पर, ये लोग, अपने गुण-सम्पन्न पुत्र को राज्य सौंप कर, वृत्तों की छाल पहनने वाले योगियों का अनुकरण करते थे-विषयोपभोगों का परित्याग करके, संयमी बन, वन में, ये तपस्या करने चले जाते थे। रघु ने भी, इसीसे, उस रीति का अनुसरण करना चाहा। वह वन जाने के लिए तैयार हो गया। यह देख कर अज को बड़ा दुःख हुआ। सरपंच से सुशोभित सिर को पिता के पैरों पर रख कर उसने कहा:-"तात! ऐसा न कीजिए। मुझे न छोड़िए। मैं निराश्रित हो जाऊँगा।" पुत्र को इस तरह कहते और रोते बिलखते देख, पुत्रवत्सल रघु ने अज की बात मान ली। वह वन को तो न गया; परन्तु, सर्प जिस तरह छोड़ी हुई केंचुल को फिर नहीं ग्रहण करता उसी तरह, उसने भी परित्याग की हुई लक्ष्मी को फिर नहीं लिया। छोड़ दिया सो छोड़ दिया। वह संन्यासी हो गया और नगर के बाहर, एक कुटी में, रहने लगा। वहाँ उसने अपनी सारी इन्द्रियों को जीत लिया। उस समय उसकी पुत्रभोग्या राज्य-लक्ष्मी ने उसके साथ पुत्रवधू की तरह व्यव- हार किया। लक्ष्मी का पूर्व सम्बन्ध रघु से छूट गया; उसका उपभोग अब उसका पुत्र करने लगा। तथापि, भले घर की पुत्रवधू जिस तरह अपने थे