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रघुवंश।


अधिकार था। किस तरह के व्यवहार का कैसा परिणाम होगा, यह पहले ही से अच्छी तरह सोच कर, उसने इनमें से जिस व्यवहार की जिस समय ज़रूरत समझी उसी का उस समय प्रयोग किया। रघ ने भी मिट्टी और सोने को तुल्य समझ कर माया के सत्य, रज और तम नामक तीनों गुणों को जीत लिया। नया राजा बड़ा ही दृढ़का था। कोई काम छेड़ कर बिना उसे पूरा किये वह कभी रहा ही नहीं। जब तक कार्यसिद्धि न हुई तब तक उसने अपना उद्योग बराबर जारी ही रक्खा। वृद्ध राजा रघु भी बड़ा ही स्थिर बुद्धि और दृढ़-निश्चय था। जब तक उसे ब्रह्म का साक्षात्कार न हो गया-जब तक उसने परमात्मा के दर्शन न कर लिये-तब तक वह योगाभ्यास करता ही रहा। इस प्रकार दोनों ही नए अपने अपने काम बड़ी ही दृढ़ता से किये। एक तो अपने शत्रुओं की चालों को ध्यान से देखता हुआ उनके सारे उद्योगों को निष्फल करता गया। दूसरे ने अपने इन्द्रियरूपी वैरियों पर अपना अधिकार जमा कर उनकी वासनाओं का समूल नाश कर दिया। एक ने लौकिक अभ्युदय की इच्छा से यह सब काम किया; दूसरे ने आत्मा को सांसारिक बन्धनों से सदा के लिए छुड़ा कर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किया। अन्त को दोनों के मनोरथ सिद्ध हो गये। दोनों ने अपनी अपनी अभीष्ट-सिद्धि पाई। अज ने अजेय-पद पाया; रघु ने मोक्ष-पद।

समदर्शी रघु ने, अज की इच्छा पूर्ण करने के लिए, कई वर्ष तक, योग-साधन किया। तदनन्तर, समाधि द्वारा प्राण छोड़ कर, मायातीत और अविनाशी परमात्मा में वह लीन हो गया।

पिता के शरीर-त्याग का समाचार सुन कर, नियम-पूर्वक अग्नि की सेवा-अग्निहोत्र-करने वाले अज को बड़ा दुःख हुआ। उसने बहुत विलाप किया और शोक से सन्तप्त होकर घंटों आँसू बहाये। तदनन्तर, कितने ही योगियों और तपस्वियों को साथ लेकर उसने पिता की यथा- विधि अन्त्येष्टि-क्रिया की; पर, पिता के शरीर का अग्नि-संस्कार न किया। बात यह थी कि राजा रघु गृहस्थाश्रम छोड़ कर संन्यासी हो गया था। इस कारण संन्यासियों के मृत शरीर का जिस तरह संस्कार किया जाता है उसी तरह अज ने भी पिता के शरीर का संस्कार किया। पितरों से