ससुर की सेवा, जी लगा कर, करती है उसी तरह लक्ष्मी भी जितेन्द्रिय रघु की सेवा करती रही।
इधर तो रघु, एकान्त में, मोक्ष-प्राप्ति के उपाय में लगा; उधर नया राज्य पाये हुए अज का दिनों दिन अभ्युदय होने लगा। एक की शान्ति का समय आया, दूसरे के उदय का। अतएव, उस समय, इस प्रकार के दो राजाओं को पाकर इक्ष्वाकु का कुल उस प्रातःकालीन आकाश की उपमा को पहुँच गया जिसमें एक तरफ़ तो चन्द्रास्त हो रहा है और दूसरी तरफ़ सूर्योदय। रघु को संन्यासियों के, और, अज को राजाओं के चिह्न धारण किये देख सब लोगों को ऐसा मालूम हुआ जैसे मोक्ष और ऐश्वर्य रूपी भिन्न भिन्न दो फल देने वाले धर्म के दो अंश पृथ्वी पर उतर आये हों। अज की यह इच्छा हुई कि मैं सभी को जीत लूँ-ऐसा एक भी राजा न रह जाय जिसे मैंने न जीता हो। अतएव, इस उद्देश की सिद्धि के लिए उसने तो बड़े बड़े नीति-विशारदों को अपना मन्त्री बनाया और अपना अधिकांश समय उन्हों के समागम में व्यतीत करने लगा। उधर रघ ने यह चाहा कि मुझे परम पद की प्राप्ति हो-मुझे आत्मज्ञान हो जाय। इससे सत्यवादी महात्माओं और योगियों की सङ्गति करके वह ब्रह्मज्ञान की चर्चा और योग-साधन में लीन रहने लगा। तरुण अज ने तो प्रजा के मामले मुकद्दमे करने और उनकी प्रार्थनायें सुनने के लिए न्यायासन का आसरा लिया। बूढ़े रघु ने, चित्त की एकाग्रता सम्पादन करने के लिए, एकान्त में, पवित्र कुशासन ग्रहण किया। एक ने तो अपने प्रभुत्व और बल की महिमा से पास-पड़ोस के सारे राजाओं को जीत लिया; दूसरे ने गहरे योगाभ्यास के प्रभाव से शरीर के भीतर भ्रमण करने वाले प्राण, अपान और समान आदि पाँचों पवनों को अपने वश में कर लिया। नये राजा अज के वैरियों ने, उसके प्रतिकूल, इस पृथ्वी पर, जितने उद्योग किये उन सब के फलों को उसने जला कर खाक कर दिया; उनका एक भी उद्योग सफल न होने पाया। पुराने राजा रघु ने भी अपने जन्म-जन्मान्तर के कम्मों के बीजों को ज्ञानाग्नि से जला कर भस्म कर दिया; उसके सारे पूर्वसञ्चित संस्कार नष्ट हो गये। राजनीति में कहे गये सन्धि, विग्रह आदि छहों प्रकार के गुण-व्यवहारों-का अज को पूरा पूरा ज्ञान था। उन पर उसका पूरा