पृष्ठ:रघुवंश.djvu/१८९

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रघुवंश।

का उल्लंघन न किया उसे तो अपना मित्र बना कर उसके वैभव को उसने खूब बढ़ा दिया । परन्तु जिसने उसका सामना किया उसके राज-पाट को,वज्रहृदय होकर, उसने नष्ट कर डाला। धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर दशरथ ने, समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी को, केवल एक रथ से, जीत लिया । रथ पर सवार होकर उसने अकेले ही दिग्विजय कर डाला । सेना से सहायता लेने की उसे आवश्यकता ही न हुई। हाथियों और वेगगामी घोड़ों वाली उसकी सेना ने उसका केवल इतना ही काम किया कि उसकी जीत की घोषणा उसने सब कहीं कर दी। सेना-समूह के कारण दशरथ के विजय की खबर लोगों को जल्दी हो गई। बस, और कुछ नहीं। दशरथ का रथ बड़ा ही अद्भुत था । उसकी बनावट ऐसी थी कि उसके भीतर बैठने वाले को सामने भी खड़े हुए शत्रु न देख सकते थे । हाथ में धनुष लेकर और इसी रथ पर सवार होकर, कुवेर के समान सम्पत्तिशाली दशरथ ने समुद्र पर्यन्त फैली हुई पृथ्वी सहज ही जीत ली। विजय करते करते, समुद्र तट पर पहुँचने पर, बादलों की तरह घोर गर्जना करने वालेहसमुद्र ही उसकी जीत के नगाड़े बन गये । दशरथ को वहाँ विजय-दुन्दुभी बजाने की आवश्यकता ही न हुई। समुद्र की मेघ-गम्भीर ध्वनि से ही दुन्दुभी का काम निकल गया।इन्द्र ने पहाड़ों के पक्ष बल का नाश अपने हज़ार धारवाले वज्र से किया था; परन्तु नये कमल के समान मुखवाले दशरथ ने शत्रुओं के पक्ष, बल का नाश अपने टङ्कारकारी बाण-वर्षी धनुष ही से कर दिया । अतएव यह कहना चाहिए कि बल में यदि वह इन्द्र से अधिक न था तो कम भी न था। उसका सामना करने वाले राजाओं में से एक से भी उसके पौरुष का खण्डन न हो सका। सभी ने उससे हार खाई । हज़ारों नरपाल परास्त हो होकर, उस अखण्ड-पराक्रमी राजा के पास आकर उपस्थित हुए; और, देवता लोग जिस तरह इन्द्र के सामने अपने मस्तक झुकाते हैं उसी तरह उन्होंने भी राजा दशरथ के सामने अपने अपने मस्तक झुकाये । उस समय उनके मुकुटों पर जड़े हुए रत्नों की किरणें, दशरथ के पैरों पर पड़ कर, उन्हें चूमने लगी । ऐसा करते समय, उन किरणों का संयोग जो राजा दशरथ के पैरों के नखां की कान्ति के साथ हुआ तो उनकी चमक और भी अधिक हो गई। .