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रघुवंश।

करने लगा। ये सिंह हाथियों के घोर शत्रु थे । बड़े बड़े मतवाले हाथियों के मस्तक विदीर्ण करने के कारण इनके पजों के टेढ़े टेढ़े नुकीले नखों में गजमुक्ता लगे हुए थे-नखों से छिद कर वे वहीं अटक रहे थे। यह देख कर दशरथ का क्रोध दूना हो गया। उसने कहा-"युद्ध में जो हाथो मेरे इतने काम आते हैं उन्हीं को ये मारते हैं।” यह सोच कर उसने अपने पैने बाणों से उन सारे सिंहों को मार गिराया; एक को भी जीता न छोड़ा। उनका संहार करके उसने हाथियों की मृत्यु का बदला सा ले लिया-उनके ऋण से उसने अपने को उऋण सा कर दिया।

सिंहों का शिकार कर चुकने पर उसे एक जगह चमरी-मृग दिखाई दिये। अतएव, घोड़े की चाल को बढ़ा कर उसने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया और कान तक खींच कर बरसाये गये बाणों से उनकी पूँछे काट गिराई । इन्हीं मृगों की पूंछों के बाल चमरों में लगते हैं। इसी से ये चमरी-मृग कहलाते हैं । दशरथ ने इन्हें भी, माण्डलिक राजाओं की तरह,चमरहीन करके कल की । उसने कहा:-"मेरे राज्य में मेरे सिवा और किसी को भी चमर रखने का अधिकार नहीं। इससे केवल इनके चमर छीन लेना चाहिए; इन्हें जान से मार डालने की ज़रूरत नहीं।"

इतने में उसने,अपने घोड़े के बिलकुल पास से उड़ कर जाता हुआ,एक बड़े ही सुन्दर पंख वाला मोर देखा । परन्तु उसे उसने अपने बाण का निशाना न बनाया; उसे उड़ जाने दिया। बात यह हुई कि उसे,उस समय,चित्र-विचित्र मालाओं से गुंथे हुए अपनी प्रियतमा रानी के शिथिल केशकलाप का तुरन्तही स्मरण हो आया । मोर-पंखों में रानी के जूड़े की समता देख कर उसने उस मोर को मारना उचित न समझा। प्रेमियों को अपने प्रेमपात्र के किसी अवयव या वस्तु की सदृशता यदि कहीं दिखाई देती है तो वे उसे भी प्रेमभरी दृष्टि से देखते हैं।

राजा दशरथ ने, इस प्रकार, बहुत देर तक, शिकार खेला। उसमें उसे बहुत श्रम पड़ा । इस कारण उसके मुंह पर मोतियों के समान पसीने के कण छा गये । परन्तु नये, निकलते हुए पत्तों के मुँह खोलने वाली, और, हिम के कणों से भीगी हुई, वन की वायु ने उन्हें शीघ्र ही सुखा दिया। ठंढी हवा लगने से उसके परिश्रम का शीघ्र ही परिहार हो गया।