पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२०२

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नवाँ सर्ग।

राज्य का काम-काज तो वह अपने मन्त्रियों को सौंपही चुका था। उसकी उसे कुछ चिन्ता थी ही नहीं। अतएव, निश्चिन्त होकर और अन्य सारे काम भुला कर, वह मृगया ही में रत हो गया। उसका मृगया-विषयक अनुराग बढ़ता ही गया। फल यह हुआ कि चतुरा नायिका की तरह मृगया ने उस पृथ्वीपति को बिलकुलही अपने वश में कर लिया। कभी कभी तो घने जङ्गलों में अकेले ही उसे रात बितानी पड़ी । नौकर-चाकर तक उसके पास नहीं पहुँच पाये; उनका साथ ही छूट गया । ऐसे अवसर उपस्थित होने पर, उसे सुन्दर सुन्दर फूलों और कोमल कोमल पत्तों की शय्या पर ही सोना, और चमकती हुई जड़ी-बूटियों से ही दीपक का काम लेना, पड़ा । प्रातःकाल होने पर, गज-यूथों के एकही साथ फटाफट कान हिलाने से जो ढोल या दुन्दुभी के सदृश शब्द हुआ उसी को सुन कर राजा ने समझ लिया कि रात बीत गई। अतएव वह जाग पड़ा और बन्दीजनों के मङ्गल-गान के सदृश पक्षियों का मधुर कलरव सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ। इस प्रकार जङ्गल में भी उसे जगाने और मन बहलाने का साधन मिल गया।

एक दिन की बात है कि राजा ने रुरु-नामक एक हिरन के पीछे घोड़ा छोड़ा । घोड़ा बड़े वेग से भागा । परिश्रम से वह पसीने पसीने हो गया। मुँह से भाग निकलने लगी। तिस पर भी राजा ने घोड़े को न रोका। वह भागता ही चला गया । अगल बगल दौड़ने वाले सवार और सेवक सब पीछे रह गये । राजा दूर निकल गया और तमसा नदी के तट पर,जहाँ अनेक तपस्वी रहते थे, पहुँचा । परन्तु उसके साथियों में से किसी ने भी न देखा कि राजा किधर गया । वहाँ उसके पहुंचने पर, नदी में जल से घड़ा भरने का गम्भीर नाद सुनाई दिया । राजा ने समझा कि नदी में कोई हाथी जल-विहार कर रहा है, यह उसी की चिग्धार है । अतएव जहाँ से शब्द आ रहा था वहाँ उसने एक शब्दवेधी बाण मारा । यह काम दशरथ ने अच्छा न किया। शास्त्र में राजा को हाथी मारने की आज्ञा नहीं। दशरथ ने उस आज्ञा का उल्लकन कर दिया। बात यह है कि शास्त्रज्ञ लोग भी, रजोगुण से प्रेरित होकर, कभी कभी, कुपथगामी हो जाते हैं । दशरथ का बाण लगते ही-"हाय पिता" कह कर, नदी के

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