पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२०४

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नवाँ सर्ग।

यह सब हो चुकने पर राजा ने उस अन्धे तपस्वी से कहा:-"महाराज! मैं सचमुच ही महा निर्दयी और महा अपराधी हूँ। मैं सर्वथा आपके हाथ से मारा जाने योग्य हूँ। खैर, जो कुछ होना था सो हो गया। अब आप मुझे क्या आज्ञा देते हैं?” यह सुन कर मुनि ने अपने मृत पुत्र का अनुगमन करने की इच्छा प्रकट की। उसने स्त्री-सहित जल कर मर जाना चाहा। अतएव उसने राजा से आग और ईधन माँगा। तब तक दशरथ के नौकर-चाकर भी उले ढूँढ़ते हुए आ पहुँचे। मुनि की आज्ञा का शीघ्र ही पालन कर दिया गया। अपने हाथ से इतना बड़ा पातक हो गया देख, राजा का हृदय दुःख और सन्ताप से अभिभूत हो उठा। उसका धीरज छूट गया। अपने नाश के हेतु भूत उस शाप को वह-बड़- वानल धारण किये हुए समुद्र के समान हृदय में लिये हुए अपनी राजधानी को लौट आया।


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