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दसवाँ सर्ग।

नहीं जीत सका। स्वयौं अत्यन्त सूक्ष्म होकर भी, आप ही इस स्थूल सृष्टि के आदि कारण हैं। भगवन् ! आप हृदय के भीतर बैठे हुए भी बहुत दूर मालूम होते हैं। यह हमारा मत नहीं; बड़े बड़े पहुँचे हुए महात्माओं का मत है। वे कहते हैं कि आप निष्काम होकर भी तपस्वी हैं; दयालु होकर भी दुःख से दूर हैं। पुराण-पुरुष होकर भी कभी बूढ़े नहीं होते ! आप सब कुछ जानते हैं; आप को कोई नहीं जानता। आप ही से सब कुछ उत्पन्न हुआ है; आपको उत्पन्न करने वाला कोई नहीं-आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप सब के प्रभु हैं; आपका कोई प्रभु नहीं। आप एक होकर भी सर्वरूप हैं; ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसमें आपकी सत्ता न हो। सातों समुद्रों के जल में सोनेवाले आपही को बड़े बड़े विद्वान भूर्भुवः स्वः आदि सातों लोकों का आश्रय बताते हैं। वे कहते हैं कि 'रथन्तरं' 'बृहद्रथन्तरं' आदि सातों सामों मैं आपही का गुण-कीर्तन है; और काली, कराली आदि सातों शिखाओं वाली अग्नि आप ही का मुख है। चार मुखवाले आपही से चतुर्वर्ग–अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञान की उत्पत्ति हुई है । समय का परिमाण बताने वाले सत्य, त्रेता, आदि चारों युग तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्ण भी आप ही से उत्पन्न हुए हैं। कठिन अभ्यास से अपने मन को अपने वश में करके, योगी लोग, हृदय में बैठे हुए परम-ज्योतिःस्वरूप आप ही का चिन्तन, मुक्ति पाने के लिए, करते हैं। आप अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। किसी प्रकार की इच्छा न रखने पर भी शत्रुओं का संहार करते हैं; सदा जागे हुए होकर भी सोते हैं। इस दशा में आपका यथार्थ ज्ञान किसे हो सकता है ? कौन ऐसा है जो आपको अच्छी तरह जान सके ? इधर तो आप राम, कृष्ण आदि का अवतार लेकर शब्द आदि के विषयों का उपभोग करते हैं; उधर नर-नारायण आदि का रूप धर कर घोर तपश्चर्या करते हैं । इधर दैत्यों का दलन करके प्रजा-पालन करते हैं, उधर चुपचाप उदासीनता धारण किये बैठे रहते हैं। इस तरह भोग और तपस्या, प्रजापालन और उदासीनता आदि परस्पर-विरोधी बर्ताव आप के सिवा और कौन कर सकता है ? सिद्धि तक पहुँचने के लिए सांख्य, योग, मीमांसा आदि शास्त्रों ने जुदा जुदा मार्ग बताये हैं । परन्तु-समुद्र में गङ्गा के प्रवाह ,