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रघुवंश।

के समान-वे सारे मार्ग, अन्त को, आप ही में जा मिलते हैं। पुनर्जन्म के क्लेशों से छुटकारा पाने के लिए जो लोग, विषय-वासनाओं से विरक्त होकर, सदा आपही का ध्यान करते हैं और अपने सारे कम्मों का फल भी सदा आपही को समर्पण कर देते हैं उनकी सिद्धि के एक मात्र साधक आपही हैं। आपही की कृपा से वे जन्म-मरण के झंझटों से छूट जाते हैं। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, समुद्र आदि प्रत्यक्ष पदार्थ ही आपकी अमित महिमा की घोषणा दे रहे हैं । वही पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि आपकी महिमा का ओर छोर नहीं। आपके उत्पन्न किये गये इन पदार्थों का ही सम्पूर्ण ज्ञान जब किसी को नहीं हो सकता तब इनके आदि-कारण आपका ज्ञान कैसे हो सकेगा ? वेदों और अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध होने वाले आपकी महिमा की क्या बात है। वह तो सर्वथा अपरिमेय और अतुलनीय है। जब आप केवल स्मरण ही से प्राणियों को पावन कर देते हैं तब आपके दर्शन और स्पर्शन आदि के फलों का कहना ही क्या है । उनका अन्दाज़ा तो स्मरण के फल से ही अच्छी तरह है। जाता है। जिस तरह रत्नाकर के रत्नों की गिनती नहीं हो सकती और जिस तरह मरीचिमाली सूर्य की किरणों की संख्या नहीं जानी जा सकती, उसी तरह आपके अगम्य और अपरिमेय चरित भी नहीं वर्णन किये जा सकते । वे स्तुतियों की मर्यादा के सर्वथा बाहर हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको प्राप्त न हो । अतएव किसी भी वस्तु की प्राप्ति की आप इच्छा नहीं रखते । जब आपको सभी कुछ प्राप्त है तब आप किस चीज़ के पाने की इच्छा रक्खेंगे ? केवल लोकानुग्रह से प्रेरित होकर आप जन्म लेते और कर्म करते हैं। आपके जन्म और कर्म का कारण एकमात्र लोकोपकार है। लोक पर यदि आपकी कृपा न होती तो आपको जन्म लेने और कर्म करने की कोई आवश्यकता न थी। आपकी महिमा का गान करते करते, लाचार होकर, वाणी को रुक जाना पड़ता है । इसका कारण यह नहीं कि आपकी महिमा ही उतनी है । कारण यह है कि आपकी स्तुति करते करते वह थक जाती है। इसीसे असमर्थ होकर उसे चुप रहना पड़ता है। सम्पूर्ण भाव से आपका गुण-कीर्तन करने में वह सर्वथा असमर्थ है।"