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दसवाँ सर्ग।

विक तेज की तरह-और भी बढ़ गया। उनमें परस्पर कभी लड़ाई झगड़ा न हुआ। एक ने दूसरे का कभी विरोध न किया। उनकी बदौलत रघु का निष्कलङ्क कुल-ऋतुओं की बदौलत नन्दन-वन की तरह बहुत ही शोभनीय हो गया।

चारों भाइयों में भ्रातृभाव यद्यपि एक सा था-भ्रातृस्नेह यद्यपि किसी में किसी से कम न था-तथापि जैसे राम और लक्ष्मण ने वैसे ही भरत और शत्रुघ्न ने भी प्रीतिपूर्वक अपनी अपनी जोड़ी अलग बना ली। अग्नि और पवन, तथा चन्द्रमा और समुद्र, की जोड़ी के समान इन दोनों जोडियों की प्रीति में कभी भेद-भाव न हुआ । उनकी अखण्ड प्रीति कभी एक पल के लिए भी नहीं टूटी। प्रजा के उन चारों पतियों ने-ग्रीष्मऋतु के अन्त में काले बादलोंवाले दिनों की तरह अपने तेज और नम्रभाव से प्रजा का मन हर लिया। उनकी तेजस्विता और नम्रता देख कर प्रजा के आनन्द की सीमा न रही। वह उन पर बहुत ही प्रसन्न हुई। चार रूपों में बँटी हुई राजा दशरथ की वह सन्तति-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मूर्त्तिमान् अवतार की तरह-बहुत ही भली मालुम हुई। समुद्रपर्यन्त फैली हुई चारों दिशाओं की पृथ्वी का पति समझ कर, चारों महासागरों ने, नाना प्रकार के रत्न देकर, जैसे दशरथ को प्रसन्न किया था वैसे ही पिता के प्यारे उन चारों राजकुमारों ने भी अपने गुणों से उसे प्रसन्न कर दिया।

राजाओं के राजा महाराज दशरथ के भाग्य की कहाँ तक प्रशंसा की जाय । भगवान् के अंश से उत्पन्न हुए अपने चारों राजकुमारों से उसकी ऐसी शोभा हुई जैसी कि दैत्यों के खड्गों की धारें तोड़नेवाले अपने चारों दाँतों से ऐरावत हाथी की, अथवा रथ के जुये के समान लम्बे लम्बे चार बाहुओं से विष्णु की,अथवा फल-सिद्धि से अनुमान किये गये साम,दान आदि चारों उपायों से नीति-शास्त्र की।