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रघुवंश ।

रामचन्द्र के इस पराक्रम से विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। अतएव ताड़का मारने के उपलक्ष्य में उन्होंने रामचन्द्र को एक ऐसा अन दिया जो, राक्षसों पर छोड़ा जाने पर, उन्हें मारे बिना न रहे । महामुनि ने उस अस्त्र के प्रयोग का मन्त्र और उसके चलाने की विधि भी रामचन्द्र को बतला दी । महामुनि से उस अस्त्र को रामचन्द्र ने-सूर्य से लकड़ी जलाने वाले तेज को सूर्यकान्त मणि की तरह-पाकर उसे सादर ग्रहण किया।

ताड़का को मार कर रामचन्द्र, चलते चलते, वामनजी के पावन आश्रम में आये । उसका नाम आदि विश्वामित्र ने उनसे पहले ही बता दिया था। वहाँ पहुँच कर रामचन्द्र को यद्यपि अपने पूर्वजन्म, अर्थात् वामनावतार, से सम्बन्ध रखनेवाली बातें याद न आई, तथापि वे कुछ अनमने से ज़रूर हो उठे। इस समय वे कुछ सोचने से लगे।

वहाँ से चल कर, राम-लक्ष्मण को साथ लिये हुए, विश्वामित्र ने अपने आश्रम में प्रवेश किया। जाकर उन्होंने देखा कि उनके शिष्यों ने पूजा-अर्चा की सामग्री पहले ही से एकत्र कर रक्खी है; पत्तों के सम्पुटों की अँजुली बाँधे पेड़ खड़े हुए हैं; आश्रम के मृग, उनके दर्शनों की उत्कण्ठा से, मुँह ऊपर उठाये हुए राह देख रहे हैं। वहाँ पहुँचने पर ऋषि ने यज्ञ की दीक्षा ली और उसे विघ्नों से बचाने का काम राम-लक्ष्मण को सौंप दिया। इस पर वे अपने अपने धन्वा पर बाण रख कर, बारी बारी से, यज्ञशाला की रखवाली करने लगे। उन दोनों राजकुमारों ने अपने बाणों के द्वारा मुनि को इस तरह विनों से बचाया, जिस तरह कि सूर्य और चन्द्रमा, बारी बारी से, अपनी किरणों के द्वारा संसार को अन्धकार से बचाते हैं ।

यज्ञ हो ही रहा था कि आसमान से रक्त-वृष्टि होने लगी। दुपह- रिया के फूल के बराबर बड़ी बड़ी रुधिर की बूंदों से वेदी दूषित हो गई। यह दशा देख ऋत्विजों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने खैर की लकड़ी के चम्मच रख दिये और यज्ञ का काम बन्द कर दिया। रामचन्द्र ने जान लिया की विघ्नकर्ता राक्षस आ पहुँचे। इसलिए उन्होंने तरकस से तीर निकाल कर जो ऊपर आकाश की ओर मुँह उठाया तो देखा कि राक्षसों की सेना चली आ रही है और गीधों के पंखों की वायु से उसकी पताकायें फ़हरा रही हैं । राक्षसों की सेना में दोही राक्षस प्रधान थे। उन्हीं को