पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२२९

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रघुवंश ।

परशुराम ने क्षत्रियों का समूल संहार करने की प्रतिज्ञा की थी। इस बात को सोच कर, और अपने छोटे छोटे बच्चों को देख कर, दशरथ को अपनी दशा पर बड़ा दुःख हुआ। उनके पुत्र का भी नाम राम और उनके क्रूर-का शत्रु का भी नाम राम (परशुराम)--इस कारण, हार और सर्प के फन की रत्न की तरह एक तो उन्हें प्यारा और दूसरा भयकारी हुआ।

परशुराम को देखते ही, उनका आदर-सत्कार करने के इरादे से, दशरथ ने 'अर्घ्य अर्घ्य' कह कर अपने सेवकों को आतिथ्य की सामग्री तुरन्तही ले आने की आज्ञा दी । परन्तु उनकी सुनता कौन है ? परशुराम ने उनकी तरफ देखा तक नहीं। वे सीधे उस जगह गये जहाँ भरत के बड़े भाई रामचन्द्र थे। उनके सामने जाकर उन्होंने महाभयङ्कर पुतली वाली आँखों से उनकी तरफ़ देखा-उन आँखों से जिनसे क्षत्रियों पर उत्पन्न हुए कोप की ज्वाला सी निकल रही थी। रामचन्द्र उनके सामने निडर खड़े रहे। परशुराम युद्ध करने के लिए उतावले से होकर धनुष को मुट्ठी से मज़बूत पकड़े और उँगलियों के बीच में बाण को बार बार आगे पीछे करते हुए रामचन्द्र से बोले :-

"क्षत्रियों ने मेरा बड़ा अपकार किया है। इस कारण वे मेरे वैरी हैं। इसी से, एक नहीं, अनेक बार उनका नाश करके मैं अपने क्रोध को शान्त कर चुका हूँ। परन्तु छड़ी से छेड़े जाने पर सोये हुए साँप के समान तेरे पराक्रम का वृत्तान्त सुन कर मुझे फिर कोप हो पाया है। मैंने सुना है कि मिथिलानरेश जनक का जो धनुष और किसी राजा से झुकाया नहीं झुका उसी को तूने तोड़ डाला है । जो बात अब तक और किसी से न हुई थी उसे तुने कर दिखाया है। इस कारण मुझे ऐसा मालूम हो रहा है जैसे तूने मेरे पराक्रम का सींग तोड़ दिया हो। इस बात को मैं अपने अप- मान का कारण समझता हूँ । तेरी यह उद्दण्डता मुझे बहुत ही खटकी है। अब तक 'राम' शब्द से एक मात्र मेरा ही बोध होता था । यदि,इस लोक में, कोई 'राम' कहता था तो उसके मुँह से यह शब्द निकलते ही लोग समझ जाते थे कि कहने वाले का मतलब मुझसेही है। परन्तु अब यह बात नहीं रही । अब तो इस शब्द का प्रयोग दो जगह बँट गया। अब तो इससे तेरा भी बोध होने लगा है । तेरी महिमा भी दिन पर दिन ।