पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४
भूमिका।


करता। किसी विजेता राजा को दूसरे के चलाये संवत् को अपना कहने में क्या कुछ भी लज्जा न मालूम होगी ? वह अपना एक नया संवत् सहज ही में चला सकता है। किसी के संवत् का नाम बदल कर उसे अपने नाम से चलाना और फिर उसे ६०० वर्ष पीछे फेंक देना बड़ी ही अस्वाभाविक बात है। भारतवर्ष का इतिहास देखने से मालूम होता है कि जितने विजेता राजाओं ने संवत् चलाया है सबने नया संवत् अपनेही नाम से चलाया है। पुराणों और भारतवर्ष की राजनीति-सम्बन्धिनी प्राचीन पुस्तकों में इस बात की साफ़ आज्ञा है कि बड़े बड़े नामी और विजयी नरेशों को अपना नया संवत् चलाना चाहिए। युधिष्ठिर, कनिष्क, शालिवाहन और श्रीहर्ष आदि ने इस आज्ञा का पालन किया है। शिवाजी तक ने अपना संवत्ल ग चलाने की चेष्टा की है। अतएव दूसरे के संवत् को अपना बनाने की कल्पना हास्यास्पद और सर्वथा अस्वाभाविक है।

पुरातत्ववेत्ता ईसा के पूर्व, पहले शतक, में किसी विक्रमादित्य का होना मानने से बेतरह सङ्कोच करते हैं। इसलिए कि उस समय का न कोई ऐसा सिक्का ही मिला है जिसमें इस राजा का नाम हो, न कोई शिलालेखही मिला है, न कोई ताम्रपत्रही मिला है। परन्तु उनकी यह युक्ति बड़ी ही निर्बल है। तत्कालीन प्राचीन इतिहास में इस राजा के नाम का न मिलना उसके अनस्तित्व का बोधक नहीं माना जा सकता। पुराने जमाने के सारे ऐतिहासिक लेख प्राप्त हैं कहाँ ? यदि वे सब प्राप्त हो जाते और उनमें विक्रमादित्य का नाम न मिलता तो ऐसी शङ्का हो सकती थी। पर बात ऐसी नहीं है। विक्रमादित्य का नाम ज़रूर मिलता है। दक्षिण में शातवाहन-वंशीय हाल-नामक एक राजा हो गया है। विन्सेंट स्मिथ साहब ने उसका समय ६८ ईसवी निश्चित किया है। इस हाल ने गाथा-सप्तशती नाम की एक पुस्तक प्राचीन महाराष्ट्री भाषा में लिखी है। उसके पैंसठवें पद्य का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है:-


  • केनडी नामक एक विलायती विद्वान् ने, कुछ समय हुश्आ, एक नवीन ही कल्पना कर डाली है। आप की राय है कि विक्रम संवत् राजा कनिष्क का चलाया हुआ है। ईसा के ५६ वर्ष पहले काश्मीर में बौद्धों का दूसरा सम्मेलन कराने और

अपने जन्मधर्म को छोड़ कर बौद्ध होने के उपलक्ष्य में उसी ने इस संवत् का प्रचार किया। पर इस अनुमान का पोषक एक भी अच्छा प्रमाण आपने नहीं दिया।