पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९३
बारहवाँ सर्ग।


देख पवनसुत हनूमान् सञ्जीवनी नामक महौषधि ले आये। उसके प्रभाव से लक्ष्मण की सारी व्यथा दूर हो गई। वे फिर भीषण युद्ध करने लगे। उन्होंने अपने तीक्ष्ण बाण से इतने राक्षस मार गिराये कि लङ्का की स्त्रियों में हा-हाकार मच गया। वे. महाकारुणिक विलाप करने लगीं। अपने बाणों की सहायता से राक्षसियों को विलाप करना सिखला कर लक्ष्मणजी विलापाचार्य की पदवी को पहुँच गये। शरत्काल जिस तरह मेघों की गरज और इन्द्र-धनुष का सर्वनाश कर देता है-उनका नामोनिशान तक बाकी नहीं रखता-उसी तरह लक्ष्मण ने मेघनाद के नाद और इन्द्र-धनुष के समान चमकीले उसके धनुष का अत्यल्प अंश भी बाकी न रक्खा। उन्होंने उसके धनुष को काट कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले और स्वयं उसे भी मार कर सदा के लिए चुप कर दिया।

मेघनाद के मारे जाने पर कुम्भकर्ण लड़ाई के मैदान में आया। सुग्रीव ने उसके नाक-कान काट कर उसकी वही दशा कर डाली जो दशा उसकी बहन शूर्पणखा की हुई थी। भाई-बहन दोनों की अवस्था एक सी हो गई। नाक-कान कट जाने पर भी कुम्भकर्ण ने बड़ा पराक्रम दिखाया। टाँकी से काटे गये मैनसिल के लाल लाल पर्वत की तरह उसने रामचन्द्र को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब रामचन्द्र के बाणों ने मानों उससे कहा:-"आप तो निद्रा-प्रिय हैं। यह समय आपके सोने का था, युद्ध करने का नहीं। आपके भाई ने आपको कुसमय में जगा कर वृथा ही इतना कष्ट दिया।" जान पड़ता है, यही सोच कर उन्होंने कुम्भकर्ण के लिए दीर्घनिद्रा बुला दी- उसे उन्होंने सदा के लिए सुला दिया।

करोड़ों बन्दरों की सेना में और भी न मालूम कितने राक्षस गिर कर नष्ट हो गये। कटे हुए राक्षसों के रुधिर की नदियाँ बह निकलीं। उन नदियों में गिरी हुई युद्ध के मैदान की रज की तरह, कपि-सेना में मर कर गिरे हुए राक्षसों का पता तक न चला कि वे कहाँ गये और उनकी क्या गति हुई।

राक्षसों की इतनी हत्या हो चुकने पर, रावण फिर युद्ध करने के लिए घर से निकला। उसने निश्चय कर लिया कि आज या तो रावण ही इस संसार से सदा के लिए कूच कर जायगा या राम ही। उस समय देवताओं