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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२६०

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तेरहवाँ सर्ग।

इससे बहुत पतली जान पड़ती है। अपने पतलेपन और नीले रङ्ग के कारण वह ऐसी मालूम होती है जैसे चक्र की धार पर लगे हुए मोरचे,की पतली पतली तह।

"हे दीघनयनी! समुद्र-तीर-वर्तिनी वायु शायद यह समझ रही है कि तेरे बिम्बाधर में विद्यमान रस का मैं बेतरह प्यासा हूँ। अतएव, मुझे इतना धीरज नहीं कि मैं तेरा शृङ्गार हो चुकने तक ठहरा रहूँ-मुझे एक एक पल भारी सा हो रहा है। यही सोच कर मानों वह तेरे मुख का मण्डन, केतकी के फूलों की पराग-रज से, कर रही है। जल्दी के कारण मैं तेरे मुख का मण्डन नहीं होने देता। इससे, मुझ पर कृपा करके, वायु ही तेरे मुख का मण्डन सा कर रही है।

"देख तो, विमान कितने वेग से जा रहा है। हम लोग, पल ही भर में, समुद्र पार करके, किनारे पर, पहुँच गये। समुद्र-तट की शोभा भी देखने ही लायक है। फलों से लदे हुए सुपारी के पेड़ बहुत ही भले मालूम होते हैं। फटी हुई सीपियों से निकले हुए मोतियों के ढेर के ढेर रेत पर पड़े हुए कैसे अच्छे लगते हैं।

"हे मृगनयनी! ज़रा पीछे मुड़ कर तो देख। न मालूम कितनी दूर हम लोग निकल आये। केले के समान सुन्दर जवाओंवाली जानकी ! समुद्रतीर-वर्तिनी वन-भूमि पर तो एक दृष्टि डाल । जैसे जैसे समुद्र दूर होता जाता है वैसे ही वैसे वह उसके भीतर से निकलती हुई सी चली आती है।

"इस विमान की गति को तो देख। मैं इसकी कहाँ तक प्रशंसा करूँ? कभी तो यह देवताओं के मार्ग से चलता है, कभी बादलों के और कभी पक्षियों के। जिधर से चलने को मेरा जी चाहता है उधर ही से यह जाता है। यह मेरे मन की भी बात समझ जाता है।

"प्रिये! अब दोपहर का समय है। इसीसे धूप के कारण तेरे मुखमण्डल पर पसीने के बूंद निकल रहे हैं। परन्तु, ऐरावत के मद से सुगन्धित और त्रिपथगा गङ्गा की तरङ्गों के स्पर्श से शीतल हुई आकाश-वायु उन्हें तेरे मुख पर ठहरने ही नहीं देती। निकलने के साथ ही वह उन्हें सुखा देती है।