पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२६१

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रघुवंश ।

"इस समय हमारा विमान बादलों के बीच से जा रहा है। अतएव, कुतूहल में आकर जब तू अपना हाथ विमान की खिड़कियों से बाहर निकाल कर किसी मेघ को छू देती है तब बड़ा मज़ा होता है । हे कोपनशीले ! उस समय वह मेघ अपना बिजलीरूपी चमकीला भुजबन्द उतार कर तुझे एक और गहना सा देने लगता है । एक भुजबन्द तो पहले ही से तेरी बाँह पर है। परन्तु, वह शायद कहता होगा कि एक उसका भी चिह्न सही ।

"गेरुये वस्त्र धारण करनेवाले ये तपस्वी, चिरकाल से उजड़े हुए अपने अपने आश्रमों में आ कर, इस समय, उनमें नई पर्णशालाये बना रहे हैं। राक्षसों के डर से अपने आश्रम छोड़ कर ये लोग भाग गये थे। परन्तु अब उनका डर नहीं। अब तो इस जनस्थान में सब प्रकार प्रानन्द है; किसी विघ्न का नाम तक नहीं । इसीसे ये फिर बसने आये हैं।

"देख, यह वही स्थान है जहाँ तुझे ढूँढ़ते ढूँढ़ते मैंने तेरा एक बिछुआ ज़मीन पर पड़ा पाया था। उसने तेरे चरणारविन्दों से बिछुड़ने के दुःख से मौनसा साध लिया था-बोलना ही बन्द सा कर दिया था। इन लताओं को देख कर भी मुझे एक बात याद आ गई । इन बेचारियों में बोलने की शक्ति तो है नहीं। इस कारण, जिस मार्ग से तुझे राक्षस हर ले गया था उसे इन्होंने, कृपापूर्वक, अपनी झुके हुए पत्तोंवाली डालियों से मुझे दिखाया था। इन हरिणियों का भी मैं बहुत कृतज्ञ हूँ। तेरे वियोग में मुझे व्याकुल देख इन्होंने चरना बन्द करके, ऊँची पलकों वाली अपनी आँखें दक्षिण दिशा की तरफ़ उठाई थी । जिस मार्ग से तू गई थी उसकी मुझे कुछ भी खबर न थी। यह बात इन्हें मालूम सी हो गई थी। इसी से इन्होंने तेरे मार्ग की सूचना देकर मुझे अनुगृहीत किया था।

"देख, माल्यवान् पर्वत का आकाश-स्पर्शी शिखर वह सामने दिखाई दे रहा है। यह वही शिखर है जिस पर बांदलों ने नया मेंह, और तेरी वियोग-व्यथा से व्यथित मैंने आँसू, एक ही साथ, बरसाये थे। उस समय वर्षाकाल था। इसी से तेरे वियोग की व्यथा मुझे और भी अधिक दुःखदायिनी हो रही थी। पानी बरस जाने के कारण छोटे छोटे तालाबों से सुगन्धि आ रही थी; कदम्ब के पेड़ों पर अधखिले फूल शोभा पा रहे थे; और मोरों का शोर मनोहारी स्वर में हो रहा था । परन्तु सुख के ये सारे