"देख, गोदावरी भी आ गई । विमान के झरोखों से बाहर लट- कती हुई तेरी सोने की करधनी के घुघुरुओं का शब्द सुन कर, गोदावरी के सारस पक्षी, आकाश में उड़ते हुए, आगे बढ़ कर, तुझसे भेंट सी करने आ रहे हैं।
"अहा ! बहुत दिनों के बाद आज फिर पञ्चवटी के दर्शन हुए हैं। यह वही पञ्चवटी है जिसमें तूने, कटि कमज़ोर होने पर भी, आम के पौधों को, पानी से घड़े भर भर कर, सींचा था । देख तो इसके मृग, मुँह ऊपर को उठाये हुए, हम लोगों की तरफ़ कितनी उत्सुकता से देख रहे हैं। इसे दुबारा देख कर आज मुझे बड़ा ही आनन्द हो रहा है। मुझे इस समय उस दिन की याद आ रही है जिस दिन आखेट से निपट कर, तेरी गोद में अपना सिर रक्खे हुए, नरकुल की कुटी के भीतर, एकान्त में, गोदावरी के किनारे, मैं सो गया था। उस समय, नदी की तरङ्गों को छूकर आई हुई वायु ने, मेरी सारी थकावट, एक पल में, दूर कर दी थी। क्यों, याद है न ?
"अगस्त्य मुनि का नाम तो तूने अवश्य ही सुना होगा । शरत्काल में उनके उदय से सारे जलाशयों के जल निर्मल हो जाते हैं । मैले जलों को निर्मल करनेवाले उन्हीं अगस्त्य का यह भूतलवर्ती स्थान है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। इन्होंने अपनी भौंह टेढ़ी करके, केवल एक बार कोपपूर्ण दृष्टि से देख कर ही, नहुष-नरेश को इन्द्र की पदवी से भ्रष्ट कर दिया था । परम कीर्तिमान अगस्त्य मुनि, इस समय, अग्निहोत्र कर रहे हैं। पाहवनीय, गाहपत्य और दक्षिण नामक उनकी तीनों आगों से उठा हुआ, हव्य की सुगन्धि से युक्त धुवाँ, देख, हम लोगों के विमान-मार्ग तक में छाया हुआ है । उसे सूंघने से मेरा रजोगुण दूर हो गया और मेरी आत्मा हलकी सी हो गई।
"हे मानिनी ! वह शातकर्णि मुनि का पञ्चाप्सर नामक विहार-सरोवर है । वह वन से घिरा हुआ है। अतएव, यहाँ से वह वन के बीच चमकता हुआ ऐसा दिखाई देता है जैसे, दूर से देखने पर, मेघों के बीच चमकता हुआ चन्द्रमा का बिम्ब थोड़ा थोड़ा दिखाई देता है। पूर्वकाल में शातकर्णि मुनि ने यहाँ पर बड़ी ही घोर तपस्या की थी। मृगों के साथ साथ फिरते हुए उन्होंने केवल कुश के अंकुर खाकर अपनी प्राण-रक्षा की थी। उनकी