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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/२६२

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तेरहवाँ सर्ग।

सामान, विना तेरे, मुझे अत्यन्त असह्य थे। जिस समय मैं इस पर ठहरा हुआ था उस समय गुफाओं के भीतर प्रतिध्वनित होने- वाली मेघों की गर्जना ने मुझे बड़ा दुःख दिया था। उसे सुन कर मेरा धीरज प्रायः छूट गया था। बात यह थी कि उस समय मुझे तुझ भीरु का कम्पपूर्ण प्रालिङ्गन याद आ गया था । मेघों को गरजते सुन तू डर कर काँपती हुई मेरी गोद में आ जाती थी। इसका मुझे एक नहीं, अनेक बार, अनुभव हो चुका था। इसी से तेरे हरे जाने के बाद, इस पर्वत के शिखर पर, मेघ गर्जना सुन कर वे सारी बाते मुझे याद आ गई थीं और बड़ी कठिनता से मैं उस गर्जना को सह सका था। इस पर्वत के शिखर पर एक बात और भी ऐसी हुई थी जिससे मुझे दुःख पहुँचा था। पानी बरस जाने के कारण, जमीन से उठी हुई भाफ़ का योग पाकर, खिली हुई नई कन्दलियों ने तेरी आँखों की शोभा की होड़ की थी। उनके अरुणिमामय फूल देकर मुझे, वैवाहिक धुवाँ लगने से अरुण हुई तेरी आँखों का स्मरण हो आया था। इसी से मेरे हृदय को पीड़ा पहुँची थी।

"अब हम लोग पम्पासरोवर के पास आ पहुँचे । देख तो उसके तट पर नरकुल का कितना घना वन है। उसने तीरवर्ती जल को ढक सा लिया है। उसके भीतर, तट पर, बैठे हुए चञ्चल सारस पक्षी बहुत ही कम दिखाई देते हैं। दूर तक चल कर जाने के कारण थकी हुई मेरी दृष्टि इस सरोवर का जल पी सी रही है। यहीं, इस सरोवर के किनारे, मैंने चकवाचकवी के जोड़े देखे थे। अपनी अपनी चोंचों में कमल के केसर लेकर वे एक दूसरे को दे रहे थे । वे संयोगी थे; और, मैं, तुझसे बहुत दूर होने के कारण, वियोगी था। इससे मैंने उन्हें अत्यन्त चावभरी दृष्टि से देखा था। उस समय मेरा बुरा हाल था। मेरी विचार-बुद्धि जाती सी रही थी। सरोवर के तट पर अशोक की उस लता को, जो फूलों के गोल गोल गुच्छों से झुक रही है, देख कर मुझे तेरा भ्रम हो गया था। मुझे ऐसा मालूम होने लगा था कि वह लता नहीं, किन्तु तू ही है । इस कारण आँखों से आंसू टपकाता हुआ मैं उसका आलिङ्गन करने चला था । यदि सच बात बतला कर लक्ष्मण मुझे रोक न देते तो मैं अवश्य ही उसे अपने हृदय से लगा लेता।