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रघुवंश।

उसी तरह अधीन हो जिस तरह कि विष्णु इन्द्र के अधीन हैं । और, स्वामी की आज्ञा का पालन करना अधीन का कर्तव्य ही है।

"मेरी सब सासुओं से मेरा यथाक्रम प्रणाम कहना और कहना कि मेरी कोख में तुम्हारे पुत्र का गर्भ है। हृदय से तुम उसकी कुशल-कामना करो; आशीष दो कि उसका मङ्गल हो।

"और, उस राजा से मेरी तरफ़ से कहना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूद कर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। फिर भी जो तुमने पुरवासियों की की हुई अलीक चर्चा सुन कर ही मुझे छोड़ दिया, वह क्या तुमने अपने कुल के अनुरूप काम किया अथवा शास्त्र के अनुरूप ? रघु के उज्ज्वल वंश में जन्म ले कर और सारे शास्त्रों का मर्म जान कर भी क्या तुम्हें मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करना उचित था ! अथवा तुम्हें मैं क्यों दोष दूँ। तुम तो सदा ही दूसरों का कल्याण चाहते हो; कभी भी किसी का जी नहीं दुखाते । अतएव, मैं यह नहीं कह सकती कि तुमने अपने ही मन से मेरा परित्याग किया है। यह परित्याग मेरे ही जन्म-जन्मान्तरों के पापों का फल है। उसमें तुम्हारा क्या अपराध ? जान पड़ता है, यह करतूत तुम्हारी राज-लक्ष्मी की है। वह तुम्हें प्राप्त होती थी। परन्तु उसका तो तुमने तिरस्कार किया और मेरा आदर । उसे तो तुमने छोड़ दिया और मुझे अपने साथ लेकर वन को चले गये। इसीसे जब मैं तुम्हारे घर में आदरपूर्वक रहने लगी तब, मत्सर के कारण, उससे मेरा रहना न सहा गया। क्रुद्ध हुई उसी राज-लक्ष्मी की प्रेरणा का यह परिणाम मालूम होता है। हाय! मेंरे वे दिन कहाँ गये जब मैं राक्षसों से सताये गये सैकड़ों तपस्वियों की पत्नियों को, तुम्हारी बदौलत, शरण देती थी। पर, अब, मुझे ही औरों की शरण जाना पड़ेगा ! तुम्हारे जीते, यह मुझसे कैसे हो सकेगा ? तुम्हारे वियोग में मेरे ये पापी प्राण बिलकुल ही निकम्मे हैं। बिना तुम्हारे मैं अपने जीवन को व्यर्थ समझती हूँ। वह मेरे किसी काम का नहीं। यदि तुम्हारा तेज मेरी कोख में न विद्यमान होता तो मैं अपने तुच्छ जीवन का एक पल में नाश कर देती। परन्तु तुमसे जो गर्भ मुझ में रह गया है वह मेरी इस इच्छा की सफलता में विघ्न डाल रहा है। यदि मैं आत्महत्या कर लूँ तो उसका भी नाश हो जायगा । और, यह मैं नहीं चाहती । गर्भ की रक्षा करना ही