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चौदहवाँ सर्ग।

सीता का दुःख दूर न किया । वह फटती तो उसके भीतर सीवा- जी प्रवेश कर जाती । पर वह न फटी । उसे अपनी सुता के परित्याग में सन्देह सा हो आया। उसने अपने मन में मानों कहा:-"तेरे पति का आचरण बहुत ही शुद्ध है; वह बड़ा ही साधुचरित है। वह महाकुलीन भी है, क्योंकि इक्ष्वाकु के वंश में उसने जन्म पाया है। फिर भला, इस तरह, अकस्मात् बिना किसी कारण के, वह तुझे कैसे छोड़ सकता है ! मुझे इस आज्ञा पर विश्वास नहीं । इससे मैं तुझे अपने भीतर नहीं बिठा सकती।"

जब तक जानकीजी मूर्च्छित पड़ी रहीं तब तक उन्हें दुःख से छुटकारा रहा। ज्ञानेन्द्रियों का व्यापार नष्ट हो जाने से दुःख का भी उन्हें ज्ञान न हुआ । लक्ष्मणजी ने उनके मुख पर पानी छिड़क कर और पंखा झल कर उन्हें जब फिर सचेत किया तब उनका हृदय दुःखाग्नि से बेतरह जल उठा। सचेत होना उन्हें मूर्च्छित होने से भी अधिक दुःखदायक हुआ। आहा! जानकीजी की सुशीलता का वर्णन नहीं हो सकता। यद्यपि उनके पति ने उन्हें, निरपराध होने पर भी, घर से निकाल दिया, तथापि, उनके मुँह से, पति के विषय में, एक भी दुर्वचन न निकला। उन्होंने बार बार अपने ही को धिक्कारा; बार बार अपनीही निन्दा की; बार बार जन्म के दुखिया अपने ही जीवन का तिरस्कार किया।

लक्ष्मण ने महासती सीताजी को बहुत कुछ आसा-भरोसा देकर और बहुत कुछ समझा बुझा कर वाल्मीकि मुनि के आश्रम का रास्ता बता दिया और वहीं जाकर रहने की सलाह दी। फिर उन्होंने सीताजी के पैरों पर गिर कर उनसे प्रार्थना कीः-

"हे देवी ! मैं पराधीन हूँ। पराधीनता ही ने मुझसे ऐसा क्रूर कर्म कराया है। स्वामी की आज्ञा से मैंने आपके साथ जो ऐसा कठोर व्यवहार किया है उसके लिए आप मुझे क्षमा करें । मैं, अत्यन्त नम्र होकर, आपसे तमा की भिक्षा माँगता हूँ।"

सीताजी ने लक्ष्मण को झट पट उठा कर उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया:-

"हे सौम्य ! तुम बड़े सुशील हो । मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम चिरञ्जीव हो ! तुम्हारा इसमें कोई दोष नहीं । तुम तो अपने जेठे भाई के