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रघुवंश ।

उनके रथ के घोड़े बहुत थक गये थे। इससे उन्होंने वहीं ठहर जाना मुनासिब समझा। वाल्मीकि ने कुमार शत्रुघ्न का अच्छा सत्कार किया । तपस्या के प्रभाव से उन्होंने उत्तमोत्तम पदार्थ प्रस्तुत कर दिये और शत्रुघ्न को बड़े ही आराम से रक्खा। उसी रात को शत्रुघ्न की गर्भवती भाभी. के-पृथ्वी के कोश और दण्ड के समान-दो सर्वसम्पन्न पुत्र हुए। बड़े भाई की सन्तानोत्पत्ति का समाचार सुन कर शत्रुघ्न को बड़ा आनन्द हुआ। प्रातःकाल होने पर, उन्होंने हाथ जोड़ कर मुनिवर वाल्मीकि को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से रथ पर सवार होकर चल दिया।

यथासमय शत्रुघ्न मधूपन्न नामक नगर में पहुँच गये। वे पहुँचे ही थे कि कुम्भीनसी नामक राक्षसी का पुत्र, लवणासुर, मारे हुए पशुओं के समूह को, वन से ली गई भेंट के सदृश, लिये हुए उन्हें मिल गया। उसका रूप बहुतही भयानक था। चलती फिरती चिता की आग के सदृश वह मालूम होता था। चिता की आग के सारे लक्षण उसमें थे। चिता की आग धुवें से कुछ धुंधली दिखाई देती है; वह भी धुर्वे के ही समान धुंधले रङ्ग का था। चिता की आग से जलते हुए मुर्दे की मज्जा की दुर्गन्धि आती है; उसके भी शरीर से मजा की दुर्गन्धि आती थी। चिता की आग ज्वालारूपी लाल-पीले केशवाली होती है; उसके भी केश ज्वाला ही के सदृश लाल-पीले थे। चिता की आग को मांसाहारी (गीध,चील्ह और गीदड़ आदि) घेरे रहते हैं; उसे भी मांसाहारी ( राक्षस ) घेरे हुए थे। दैवयोग से, उस समय, लवण के हाथ में त्रिशूल न था। उसे त्रिशूलहीन देख कर शत्रुघ्न बहुत खुश हुए। उन्होंने उस पर तत्काल ही आक्रमण कर दिया । यह उन्होंने अच्छा ही किया। क्योंकि, शत्रु के छिद्र देख कर जो लोग वहीं प्रहार करते हैं उनकी अवश्य ही जीत होती है-जीत उनके सामने हाथ बाँधे खड़ी सी रहती है। युद्धविद्या के आचार्यों की आज्ञा है कि जिस बात में शत्रु को कमज़ोर देखे उसी को लक्ष्य करके उस पर आघात करे। इस मौके पर शत्रुघ्न ने इसी आज्ञा का परिपालन किया।

और शत्रुघ्न को अपने ऊपर चोट करते देख लवणासुर के क्रोध की सीमा न रही । उसने ललकार कर कहा:-