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पन्द्रहवाँ सर्ग।

"मुझे आज पेट भर खाने को न मिला देख, जान पड़ता है, ब्रह्मा डर गया है। इससे उसी ने तुझे, मेरे मुँह का कौर बनाने के लिए, भेजा है । धन्य मेरे भाग्य ! ठहर; तेरी गुस्ताखो का बदला मैं अभी देता हूँ।"

इस प्रकार शत्रुघ्न को डराने की चेष्टा करके उसने पास के एक प्रकाण्ड पेड़ को, मोथा नामक घास के एक तिनके की तरह, जड़ से उखाड़ लिया और शत्रन्न को जान से मार डालने की इच्छा से, उसे उसने उन पर फेंका। परन्तु शत्रुघ्न ने अपने तेज़ बाणों से बीव ही में काट कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले । वह पेड़ तो उनके शरीर तक न पहुँचा; हाँ उसके फूलों की रज उड़ कर ज़रूर उनके शरीर पर जा गिरी । अपने फेंके हुए पेड़ की यह दशा हुई देख लवणासुर ने सैकड़ों मन वज़नी एक पत्थर, यमराज के शरीर से अलग हुए उसके मुक्के की तरह, शत्रुघ्न पर चलाया। शत्रन ने इन्द्र-देवतात्मक अस्त्र उठा कर उस पर ऐसा मारा कि वह पत्थर चूर चूर हो गया। वह पिस सा गया; उसके परमाणु रेत से भी अधिक बारीक हो गये । वब, प्रलयकाल की आँधी के उड़ाये हुए, ताड़ के एकही वृक्ष वाले पर्वत की तरह-अपनी दाहनी भुजा उठा कर, वह शत्रुघ्न पर दौड़ा। यह देख कर शत्रुघ्न ने विष्णु देवता-सम्बन्धी एक बाण ऐसा छोड़ा कि वह लवणासुर की छाती फाड़ कर पार निकल गया। इस बाण के लगते ही वह निशाचर अररा कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके गिरने से पृथ्वी तो कॅप उठी, पर आश्रमवासी मुनियों का कॅपना बन्द हो गया। यमुना-तीर-वर्ती ऋषि और मुनि, जो अब तक उसके डर से कँपते थे, निर्भय हो गये । इधर उस मरे हुए राक्षस के ऊपर तो मांसभक्षी पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड टूट पड़े; उधर उसके शत्रु शत्रुघ्न के शीश पर आकाश से दिव्य फूलों की वर्षा हुई।

लवणासुर को मारने से वीर वर शत्रुन को बड़ी खुशी हुई। उन्होंने कहा-"इन्द्रजित का वध करने से बढ़ी हुई शोभावाले परम तेजस्वी लक्ष्मण का सहोदर भाई, मैं, अपने को, अब, अवश्य समझता हूँ। यह काम मेरा अवश्य अपने भाई के बल और विक्रम के अनुरूप हुआ है।"

लवण के मारे जाने पर उसके सताये हुए सारे तपस्वियों ने अपने को कृतार्थ माना और शत्रुघ्न की स्तुति प्रारम्भ कर दी। प्रताप और पराक्रम