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सोलहवाँ सर्ग।

पहुँच गया। वहाँ उसके कई भाग कर दिये गये। प्रत्येक भाग को इस बात का पता लगाने की आज्ञा हुई कि रास्ता कहाँ कहाँ से है और किस रास्ते जाने से आराम मिलेगा । अतएव, सेना की कितनी ही टोलियाँ तराई में रास्ता हूँढ़ने लगीं। उनका तुमुल नाद विंध्याचल की कन्दराओं तक के भीतर घुस गया। फल यह हुआ कि नर्मदा के घोर नाद की तरह, सेना के व्योमव्यापी नाद ने भी विन्ध्य-पर्वत की गुफ़ाओं को गुञ्जायमान, कर दिया। वहाँ पर किरात लोगों की बस्ती अधिक थी। वे लोग तरह तरह की भेंटें लेकर कुश के पास उपस्थित हुए। पर राजा ने उनकी भेटों को केवल प्रसन्नतासूचक दृष्टि से देख कर ही लौटा दिया । यथासमय वह विन्ध्याचल के पार गया। पार करने में एक बात यह हुई कि पर्वत के पास गेरू आदि धातुओं की अधिकता होने के कारण उसके रथ के पहियों की हालें लाल हो गई।

रास्ते में एक तो कटक के ही चलने से बेहद कोलाहल होता था। इस पर तुरहियाँ भी बजती थीं । अतएव दोनों का नाद मिल कर ऐसा घनघोर रूप धारण करता था कि पृथ्वी और आकाश को एक कर देता था।

विन्ध्य-तीर्थ में आकर कुश ने गङ्गा में हाथियों का पुल बाँध दिया। इस कारण पूर्व-वाहिनी गङ्गा, जब तक वह अपनी सेना-सहित उतर नहीं गया, पश्चिम की ओर बहती रही। हाथियों के यूथों ने धारा के बीच में खड़े होकर उसके बहाव को रोक दिया। अतएव लाचार होकर गङ्गाजी को उलटा बहना पड़ा । इस जगह हंस बहुत थे । कुश की सेना को उतरते देख वे वहाँ न ठहर सके । डर के मारे वे आकाश को उड़ गये। जिस समय वे अपने पंख फैला कर उड़े उस समय वे, राजा कुश के ऊपर, बिना यत्न के ही, चमर सा करते चले गये । नावों से हिलते हुए जल वाली गङ्गाजी को पार करके कुश ने भक्तिभावपूर्वक उसकी वन्दना की । उसे, उस समय, इस बात का स्मरण हो पाया कि इसी भागीरथी के पवित्र जल की बदौलत कपिलमुनि के कोपानल से भस्म हुए उसके पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी।

इस तरह कई दिन तक चलने के बाद नरनाथ कुश सरयू के तट पर पहुँच गया। वहाँ उसे यज्ञकर्ता रघुवंशी राजाओं के गाड़े हुए सैकड़ों यज्ञ-स्तम्भ, वेदियों पर खड़े हुए, देख पड़े। कुश के कुल की राजधानी