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सत्रहवाँ सग।


गया तो उस ऐश्वर्यशाली ने उसे इतना धन दिया कि वह याचक स्वयं ही दाता बन गया-उसका आचरण मेघों का सा हो गया। मेघ जैसे पहले तो समुद्र के पास याचक बन कर जल लेने जाते हैं, पर पीछे से उसी जल का दान वे दूसरों को देते हैं, वैसे ही अतिथि के याचक भी उससे अनन्त धनराशि पा कर और उसे औरों को देकर दाता बन गये।

अतिथि ने जितने काम किये सब स्तुतियोग्य ही किये। कभी उसने कोई काम ऐसा न किया जो प्रशंसायोग्य न हो। परन्तु, सर्वथा प्रशंसनीय होने पर भी, यदि कोई उसकी स्तुति करता तो वह लज्जित होकर अपना सिर नीचा कर लेता। वह प्रशंसा चाहता ही न था। प्रशंसकों और स्तुतिकर्ताओं से वह हादिक द्वष रखता था। तिस पर भी उसका यश कम होने के बदले दिन पर दिन बढ़ता ही गया। उदित हुए सूर्य की तरह अपने दर्शन से प्रजा के पाप, और तत्त्वज्ञान के उपदेश से प्रजा के अज्ञानरूपी तम, को दूर करके उसने अपने प्रजा-वर्ग को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया। उसके गुणों पर उसके शत्रु तक मोहित हो गये। कलाधर की किरणें कमलों के भीतर, और दिनकर की किरणे कुमुद-कोशों के भीतर, नहीं प्रवेश पा सकतौं। परन्तु अतिथि जैसे महागुणी के गुणों ने उसके वैरियों के हृदयों तक में प्रवेश पा लिया।

अतिथि ने साधारण राजाओं के लिए अति दुष्कर अश्वमेध-यज्ञ भी कर डाला। इस कारण उसे दिग्विजय करना पड़ा। यद्यपि नीति में लिखा है कि छल से भी वैरी को जीतना चाहिए। अश्वमेध जैसे कार्य के निमित्त युद्ध करने में इस नीति के अनुसार काम करना तो और भी अधिक युक्तिसङ्गत था। तथापि राजा अतिथि ने धर्म के अनुकूल ही युद्ध करके दिग्विजय किया। अधर्म और अन्याय का उसने एक बार भी अव- लम्बन न किया।

इस प्रकार सदा ही शास्त्रसम्मत मार्ग पर चलने के कारण अतिथि का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह-देवताओं के देवता इन्द्र के समान- राजाओं का भी राजा हो गया।

राजा अतिथि को इन्द्र आदि चार दिक्पालों, पृथ्वी आदि पाँच महा- भूतों और महेन्द्र प्रादि सात कुल-पर्वतों के सदृश ही काम करते देख,