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पृष्ठ:रघुवंश.djvu/३३६

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अठारहवाँ सर्ग।

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अतिथि के उत्तरवर्ती राजाओं की वंशावली।

शत्रुओं का संहार करनेवाले अतिथि का विवाह निषधनरेश की कन्या से हुआ था। वही उसकी प्रधान रानी थी। उसी की कोख से उसे निषध नाम का एक पुत्र मिला। बल में वह निषधपर्वत से किसी तरह कम न था। अतिथि ने जब देखा कि मेरा पुत्र महा- पराक्रमी है और प्रजा की रक्षा का भार उठा सकता है तब उसे उतना ही आनन्द हुआ जितना कि सुवृष्टि के योग से परिपाक को पहुँचे हुए धान के खेत देख कर किसानों को होता है । अतएव उसने निषध को राजा बना दिया और आप शब्द, रूप, रस आदि का सुख चिरकाल तक भोग कर, अपने कुमुदसदृश शुभ्र कम्मों से पाये हुए स्वर्ग को चला गया।

कुश के पौत्र निषध के लोचन कमल के समान सुन्दर थे; उसका हृदय महासागर के समान गभीर था; और उसकी भुजाये नगर के फाटक की अर्गला (लोह-दण्ड ) के समान लम्बी और पुष्ट थीं । वीरता में तो उसकी बराबरी करनेवाला कोई था ही नहीं। पिता के अनन्तर एकच्छत्र राजा होकर उसने बड़ी ही योग्यता से ससागरा पृथ्वी का शासन किया।

निषध के नल नामक पुत्र हुआ। उसके मुख की कान्ति कमल के समान और तेज अनल के समान था। पिता के पश्चात् रघुवंश की राजलक्ष्मी उसे ही प्राप्त हुई । उसने अपने बैरियों के सेना-समूह को इस तरह नष्टभ्रष्ट कर डाला जिस तरह कि हाथी नरकुल को तोड़ मरोड़ कर फेंक देता है।

नभश्चरों, अर्थात् गन्धर्बादिकों, के द्वारा गाये गये यशवाले राजा नल